ये कैसा कोलाहल!
ब्लॉग बनाते वक्त सोचा था कि शांति से अपने अनुभवों को एक कोने में लिखता जाऊंगा। ये भी उम्मीद थी कि दो-चार लोग सार्थक टिप्पणियां करते रहेंगे तो अपने लिखे को उपयोगी बनाने और अंतिम रूप देने में सहूलियत हो जाएगी। लेकिन यहां तो इतना कोलाहल है कि कान नहीं, दिमाग फटने लगा है। टिप्पणियां देखकर लगता है कि 99.9999 फीसदी हिंदी ब्लॉगर्स के पास अपना दिखाने की इतनी व्यग्रता है कि वो बस आह और वाह ही कर सकते हैं। इनसे सार्थक टिप्पणियों की उम्मीद बेमानी है। यहां तो हर कोई कवि है, साहित्यकार है। आपको बता दूं कि नए जमाने के इन कवियों और साहित्यकारों से मुझे यूनिवर्सिटी के दिनों से ही नफरत है। परशुराम ने पचास बार धरती को क्षत्रियों से सूना कर दिया था। मैंने ज्यादा तो नहीं किया, लेकिन यूनिवर्सिटी के दिनों में कम से कम एक दर्जन कवियों-साहित्यकारों की भ्रूण हत्या तो जरूर की होगी। और, आज तक मुझे इसका कोई मलाल नहीं है। फिर भी तथाकथित जनवादी कवियों और साहित्यकारों की दुकानदारी चल ही रही है।
ब्लॉग के इस ग्लोब में मची खींचतान के बीच लिखने का मन ही नहीं करता। लेकिन लिखने की इच्छा है तो लिखूंगा ही। हां, अब मानकर लिखूंगा कि स्वांत: सुखाय ही लिखना है। कोलाहल में नहीं फंसना है। मन करेगा तो लिखूंगा, नहीं तो फालतू का समय जाया नहीं करूंगा। कबीर का एक दोहा याद आता है...रे गंधि मति अंध तू अतर दिखावत काहि, करि अंजुरि को आचमन मीठो कहत सराहि। वैसे मुझे गंधि होने का दर्प नहीं है। लेकिन जो लोग इत्र को आचमन करके मीठा बताते हों, उनसे चिढ़ जरूर है।
ब्लॉग के इस ग्लोब में मची खींचतान के बीच लिखने का मन ही नहीं करता। लेकिन लिखने की इच्छा है तो लिखूंगा ही। हां, अब मानकर लिखूंगा कि स्वांत: सुखाय ही लिखना है। कोलाहल में नहीं फंसना है। मन करेगा तो लिखूंगा, नहीं तो फालतू का समय जाया नहीं करूंगा। कबीर का एक दोहा याद आता है...रे गंधि मति अंध तू अतर दिखावत काहि, करि अंजुरि को आचमन मीठो कहत सराहि। वैसे मुझे गंधि होने का दर्प नहीं है। लेकिन जो लोग इत्र को आचमन करके मीठा बताते हों, उनसे चिढ़ जरूर है।
Comments
आपको मालूम है अप्रगतिशील साहित्य से समाज का कितना भला हो रहा है? अप्रगतिशील ग्रंथमाला का बुलेटिन सब्सक्राइब किया है आपने? पहले नियम से छै महीने हमारा साहित्य पढिये, फिर राय बनाइये! बैठे-बिठाये सिरदर्द दे दिया, यार.. ऐसे करता है कोई?