ताकते रह जाएंगे 80% ओबीसी
हिंदुस्तानी नाक और जूते की नाप के साथ ही 1931 की इस जनगणना में देश में फैली तमाम जातियों की गणना भी की गई थी। लेकिन आजादी के 60 साल बाद हमारी सरकार इस जनगणना को सामाजिक न्याय के अहम फैसले का आधार बना रही है, ये हास्यास्पद ही नहीं, शर्मनाक है। वैसे तो जैसा मैंने शुरू में कहा था कि उच्च शिक्षण संस्थानों में 27% ओबीसी आरक्षण का मसला राजनीति से जुड़ा है, इसका आंकड़ों या तर्कों से कोई लेना-देना नहीं है। फिर भी मजा लेने के लिए कुछ ताजा आंकड़ों पर नजर डालने में कोई हर्ज नहीं है।
साल 2004-05 के नेशनल सैंपल सर्वे (याद रखें, ये सर्वे है जनगणना नहीं) के मुताबिक देश की आबादी में ओबीसी का हिस्सा सबसे ज्यादा 40.23%, एससी का हिस्सा 19.75%, एसटी का हिस्सा 8.61% और सवर्ण जातियों का हिस्सा 31.41% है।
औसत मासिक उपभोग के आधार पर देखें तो 24.88% ओबीसी सबसे गरीब हैं, जबकि सवर्णों में सबसे गरीबों की संख्या 13.09% है। इसी आधार पर 20.07% ओबीसी सबसे अमीर है, जबकि सवर्णों में सबसे अमीरों की संख्या 42.29% है। जाहिर है सवर्ण अमीरों का अनुपात सवर्ण ओबीसी से लगभग दोगुना है। भूमि के मालिकाने के आधार पर देखें तो जहां 23.22% ओबीसी सबसे गरीबों में शुमार हैं, तो 23.43% सवर्ण भी सबसे गरीबों की श्रेणी में शामिल हैं। इसी आधार पर सबसे अमीर श्रेणी में 24.88% ओबीसी और 30.28% सवर्ण शामिल हैं। साफ है कि भू-स्वामित्व के मामले में अब ओबीसी और सवर्ण जातियों में ज्यादा अंतर नहीं रह गया है।
अब शुरू करते हैं उच्च शिक्षण संस्थानों में ओबीसी आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के दूसरे ऐतराज, क्रीमी लेयर को शामिल करने की बात। अगर ओबीसी की क्रीमी लेयर को 27 फीसदी आरक्षण से बाहर नहीं किया जाता तो इस तबके के 20.07% सबसे अमीर ही सारी मलाई खा जाएंगे क्योंकि इसी हिस्से में 73.69% डिप्लोमाधारक, 69.81% ग्रेजुएट और 74.01% पोस्ट-ग्रेजुएट है। ओबीसी का बाकी लगभग 80% हिस्सा उच्च शिक्षा में आरक्षण के लाभ से महरूम रह जाएगा क्योंकि इनमें ग्रेजुएशन तक पहुंचनेवाले लोग 3.88% से 17.02% के बीच हैं।
केंद्र सरकार अगर 80 फीसदी ओबीसी को उच्च शिक्षा का लाभ दिलाना चाहती है तो वह कानून में संशोधन जोड़कर क्रीमी लेयर को आसानी से इससे बाहर कर सकती है। वह सरकारी नौकरियों में ऐसा करती भी है और उसके पास क्रीमी लेयर की पूरी परिभाषा है। लेकिन वह ऐसा करने को कतई तैयार नहीं है। इसकी कुछ दीगर वजहें हैं। (अभी अधूरी है बात)
साल 2004-05 के नेशनल सैंपल सर्वे (याद रखें, ये सर्वे है जनगणना नहीं) के मुताबिक देश की आबादी में ओबीसी का हिस्सा सबसे ज्यादा 40.23%, एससी का हिस्सा 19.75%, एसटी का हिस्सा 8.61% और सवर्ण जातियों का हिस्सा 31.41% है।
औसत मासिक उपभोग के आधार पर देखें तो 24.88% ओबीसी सबसे गरीब हैं, जबकि सवर्णों में सबसे गरीबों की संख्या 13.09% है। इसी आधार पर 20.07% ओबीसी सबसे अमीर है, जबकि सवर्णों में सबसे अमीरों की संख्या 42.29% है। जाहिर है सवर्ण अमीरों का अनुपात सवर्ण ओबीसी से लगभग दोगुना है। भूमि के मालिकाने के आधार पर देखें तो जहां 23.22% ओबीसी सबसे गरीबों में शुमार हैं, तो 23.43% सवर्ण भी सबसे गरीबों की श्रेणी में शामिल हैं। इसी आधार पर सबसे अमीर श्रेणी में 24.88% ओबीसी और 30.28% सवर्ण शामिल हैं। साफ है कि भू-स्वामित्व के मामले में अब ओबीसी और सवर्ण जातियों में ज्यादा अंतर नहीं रह गया है।
अब शुरू करते हैं उच्च शिक्षण संस्थानों में ओबीसी आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के दूसरे ऐतराज, क्रीमी लेयर को शामिल करने की बात। अगर ओबीसी की क्रीमी लेयर को 27 फीसदी आरक्षण से बाहर नहीं किया जाता तो इस तबके के 20.07% सबसे अमीर ही सारी मलाई खा जाएंगे क्योंकि इसी हिस्से में 73.69% डिप्लोमाधारक, 69.81% ग्रेजुएट और 74.01% पोस्ट-ग्रेजुएट है। ओबीसी का बाकी लगभग 80% हिस्सा उच्च शिक्षा में आरक्षण के लाभ से महरूम रह जाएगा क्योंकि इनमें ग्रेजुएशन तक पहुंचनेवाले लोग 3.88% से 17.02% के बीच हैं।
केंद्र सरकार अगर 80 फीसदी ओबीसी को उच्च शिक्षा का लाभ दिलाना चाहती है तो वह कानून में संशोधन जोड़कर क्रीमी लेयर को आसानी से इससे बाहर कर सकती है। वह सरकारी नौकरियों में ऐसा करती भी है और उसके पास क्रीमी लेयर की पूरी परिभाषा है। लेकिन वह ऐसा करने को कतई तैयार नहीं है। इसकी कुछ दीगर वजहें हैं। (अभी अधूरी है बात)
Comments
क्या आपने चिट्ठाकारों और पाठकों को निपट मूर्ख समझ लिया है, जो बगैर स्रोत और संदर्भ उद्धृत किए ऐसी हास्यास्पद बातों का तथ्य के तौर पर उल्लेख कर रहे हैं। पिछले लेख में आपने लिखा-
केंद्र सरकार की नीयत को समझने के लिए पहले 1931 की जनगणना की ही थाह ली जाए। इस जनगणना में अंग्रेजों ने हिंदुस्तानियों के बारे में क्या-क्या पता लगाया था, जरा इस पर गौर फरमा कर थोड़ा हंस लिया जाए।
- उन्होंने पता लगाया था कि हिंदुस्तानियों की नाक की ऊंचाई और मोटाई में क्या अनुपात है। पतली और नुकीली नाक वो है जिसकी मोटाई ऊंचाई से 70 फीसदी कम हो, मोटी नाक वो है जिसमें ये अनुपात 85 फीसदी से ज्यादा हो और औसत नाक वह है जिसकी मोटाई ऊंचाई से 70 से 85 फीसदी के बीच हो। (वाकई कमाल की बात है। कैसे की होगी अंग्रेजों ने हिंदुस्तानी नाक की नापजोख)
आप बताइए कि ये सब किस अभिलेख में दर्ज हैं?
भारतीय जनगणना के इतिहास में अब तक जो प्रश्न पूछे गए और खासकर 1931 की जनगणना में जो प्रश्न पूछे गए, वे यहां उपलब्ध हैं।
आपकी तरह के अधकचरे और स्वार्थांध और भ्रांत मानसिकता के लोग ही ऐसी बेतूकी बातें कर सकते हैं और उसका समर्थन कर सकते हैं।
सामने वाला जिस भाषा में बात करे, मैं उसी भाषा में उसे उत्तर देने का प्रयास करता हूं। ये विशेषण जानबूझकर लगाए, क्योंकि आरक्षण का विरोध करने वालों में से ज्यादातर ऐसी ही भाषा को समझते हैं। खासकर जो लोग तथ्यों और आंकड़ों के साथ खिलवाड़ करके दूसरों को उल्लू बनाने का प्रयत्न करते हैं, वैसे व्यक्तियों को कैसे बख्शा जा सकता है! लेकिन ये प्रयास भी समझदारों के संदर्भ में ही किए जा सकते हैं। जब कोई अपने लेखन में हद को पार करने की ठान चुका हो तो फिर ऐसे चिट्ठों को नजरंदाज कर देना ही बेहतर होता है।
मैं पहली बार इस चिट्ठे पर आया और इस तरह के लेख पढ़े। अपनी टिप्पणी दर्ज कर दी, यदि ऐसे ही बेसिर-पैर की बातें आगे यहां मिलेंगी तो इसे पढ़ना छोड़ दूंगा।
आपके संदर्भ और ज्ञानवर्धन के लिए ये लिंक पेश हैं। थोथे चने में कुछ सत्व और तत्व इससे आप चाहें तो भर सकते हैं
http://www.athelstane.co.uk/tchodson/ind_ethn/ind_ethn.htm
जहां तक मेरी जात की बात है, वह कोई छिपी नहीं है जो मुझे भाषा के जरिए दिखाने की कोशिश करनी पड़े। मैंने जो विशेषण लगाए हैं, वे बिल्कुल सोच-समझकर लगाए हैं, क्योंकि आप उनके योग्य नजर आए। आपने जो ज्ञान की बातें अपने लेख में दोहराई हैं, वे बातें कुछ दिन पहले थॉमस कैलन हॉडसन के मानववैज्ञानिक विश्लेषण के हवाले से टाइम्स ऑफ इंडिया के इस आलेख में पहले छप चुकी हैं और शायद आपने भी इसे वहीं से बगैर संदर्भ, स्रोत और आभार के हिन्दी में प्रस्तुत कर दिया है। आरक्षण के मुद्दे पर सवर्ण पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के पास इसी तरह की बेतुकी बातों का सहारा रह गया है। एंथ्रोपोलॉजी के क्षेत्र में अकादमिक शोध की दृष्टि से 1931 की जनगणना से प्राप्त आंकड़ों का जो विश्लेषण किया था, उनकी प्रासंगिकता उसी क्षेत्र में हो सकती है। एंथ्रोपोलॉजी के क्षेत्र में मानव समुदाय के विभिन्न नस्लों, जातियों, रंगों, शारीरिक बनावट आदि का अध्ययन और विश्लेषण किया जाता है। लेकिन आपने लेख में कहा कि 1931 की आधिकारिक जनगणना में ऐसे आंकड़े संकलित किए गए थे, यह तो तथ्यात्मक रूप से गलत है। उस जनगणना के दौरान निर्धारित प्रपत्र में नागरिकों से जो प्रश्न पूछे गए थे वे मैंने आपको बता दिए, आप बताएं कि उसमें से किस कॉलम में नाक की मोटाई-ऊंचाई के आंकड़े भरे गए थे? और इस मानववैज्ञानिक विश्लेषण की आरक्षण के संवैधानिक मुद्दे से वर्तमान संदर्भ में क्या प्रासंगिकता है?
आरक्षण का विरोध करने का आपको पूरा हक़ है और उस हक़ का मैं सम्मान करता हूं। लेकिन इस तरह की बेसिर-पैर की बातें करके नहीं। आप तर्कसंगत बात कीजिए, तथ्य दीजिए, प्रमाण दीजिए। उनको संतुष्ट कीजिए अपनी बातों से जो अभी आप से असहमत हैं, यदि आप समर्थ हैं ऐसा करने में तो।
जब उच्चतम न्यायालय का यह निर्देश या सुझाव आया कि जातिगत आधार पर ताज़ा आंकड़े जुटाए जाएँ तो मुझे प्रसन्नता हुई। मैं चाहता हूं कि एक समग्र जनगणना हो जातिगत आधार पर और उसी अनुपात में शिक्षा और रोजगार में आरक्षण तय किया जाए। आप याद रखिए, जिस दिन ताज़ा आंकड़े प्राप्त हो गए, उस दिन पचास प्रतिशत तक आरक्षण को सीमित रखने का सुप्रीम कोर्ट का आदेश भी बेमानी हो जाएगा और पिछड़ी जातियों के लोग अपनी संख्या के अनुपात में आरक्षण लेकर रहेंगे।