अच्छी-अच्छी बातों को पटरा कर देती है ज़िंदगी
किताबें आलमारी में पड़ी रह जाती हैं। उपन्यास और कहानियों को छोड़ दें तो बाकी किताबों को साल-दो साल बाद ही दोबारा पढ़ने पर लगता है कि अरे, इसमें ऐसी भी बात लिखी गई है! जैन मुनि को सुना। कैसे दया, करुणा, वात्सल्य के बखान के अलावा बता रहे थे कि क्यों दुश्मनों की उपेक्षा की जानी चाहिए। भागवत कथा सुनी। अहंविहीन, निस्वार्थ प्रेम की महत्ता समझी। भक्ति योग और ज्ञान योग का अंतर अच्छी तरह समझा। किसी बापू का प्रवचन सुना, किसी ओझा ने सुनाई रामकथा। अच्छी-अच्छी बातें सुनीं भी, गुनीं भी। नया जीवन-दर्शन समझा। इतना कि कई बार सबके सामने भावुक हो गए। नाचने लग गए। लेकिन असल ज़िंदगी में आते ही सब कुछ हो गया पटरा।
क्यों होता है ऐसा? क्या हम इतने कुपात्र हैं कि अच्छी बातें हमारे अंदर टिक ही नहीं सकतीं? या, यह कि हमने दहेज लिया ही कहां है! वो तो लड़की के पिता ने खुद अपनी लाडली के प्रेम में इतना सारा दे डाला। अब, हम कैसे किसी की भावना को ठुकरा सकते थे? एक अजीब किस्म का दोगलापन हमारे आसपास बिखरा हुआ है। कथनी-करनी में भयानक खाईं। बातें सुनिए तो लगेगा कि इनसे महान कोई हो ही नहीं सकता। लेकिन काम देखिए तो पता चलता है कि इनसे बड़ा धूर्त और मक्कार नहीं हो सकता है। भड़ास मीडिया ने हमारा हीरो नाम की सीरीज चला रखी है। इसमें रामकृपाल से लेकर पुण्य प्रसून वाजपेयी और अजय उपाध्याय जैसे अनेक दिग्गज अपनी व्यथा-कथा सुना चुके हैं। लगता है कितना महान जीवन है इनका और कितने लोकतांत्रिक विचार हैं इनके। लेकिन न्यूजरूम में पहुंचते ही इनका सारा कुछ गाव-गुप्प हो जाता है।
बात सीधी-सी है। हमारी जीवन स्थितियां ही तय करती हैं कि हम किन बातों और विचारों को अपनाएंगे। फ्लोर पर काम कर रहे हैं, सभी में एकता ज़रूरी है तो हम उनके बीच का होने के नाते टीम-वर्क और मानव गरिमा के सम्मान की वकालत करते हैं। लेकिन बॉस की कुर्सी पर पहुंचते ही वहां बने रहने की शर्तें कुछ और हो जाती हैं तो मानव गरिमा और टीम वर्क तेल लेने चला जाता है। बॉस की कुर्सी छूटते ही इंसान फिर अपनी औकात पर आ जाता है और यारी-दोस्ती की कसमें खाने लगता है।
बड़ी-बड़ी बातों से कुछ नहीं होता। हमारा दिमाग कुछ भी कूड़ा-कचरा जमा करके नहीं रखता। या तो फेंक देता है या उन्हें रि-साइकल कर अपने काम का बना लेता है। हमारे धार्मिक साहित्य में भी पात्रता-कुपात्रता की बात की गई है। जीवनयापन और हमारी सामाजिक स्थितियां ही हमारी पात्रता तय करती हैं। तय करती है कि कितनी सूचनाएं और ज्ञान हमारे लिए ज़रूरी है। इसी से निर्धारित होता है कि बर्तन एक लीटर का होगा या पचास-सौ लीटर का। हां, हम अपनी आंखें औरों के सपने से जोड़कर बर्तन की गहराई और चौड़ाई बढ़ा भी सकते हैं। लेकिन टिकेगा उतना ही, जितना ज़िंदगी तय करेगी। बाकी सारा ओवरफ्लो कर जाएगा। उन लोगों के पास तो कुछ भी नहीं टिकता जिनकी जीवन स्थितियां ही अवसरवाद की देन हैं। तली में छेद हो तो ऊपर से कितना भी डालो, निकलता ही जाएगा। ऐसे लोग नामवर आलोचक तो बन सकते हैं, कुछ रच नहीं सकते।
बात इतनी भर नहीं है कि ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है, इच्छा क्यों पूरी हो मन की। बल्कि, समाज की उत्पादन प्रक्रिया में, रचनाशीलता के कर्म में आपकी यथास्थिति क्या बनती है, मान-सम्मान ओहदा बनाए रखने के लिए ज़रूरी क्या है, इसी से तय होते हैं आपके जीवन के व्यावहारिक विचार। बाकी सब सैद्धांतिक लफ्फाज़ी है, स्वांग है जो दूसरों पर असरकारी हो सकता है, अपनों पर नहीं। इसीलिए मियां जब बैठकखाने में किसी के सामने ज्ञान ठेलने की हद कर देते हैं तो बीवी अंदर से आकर बोल ही देती है – चलो अब बंद करो। बहुत हुआ। और भी कुछ करना-धरना है कि नहीं।
तस्वीर साभार: Lady-Bug
क्यों होता है ऐसा? क्या हम इतने कुपात्र हैं कि अच्छी बातें हमारे अंदर टिक ही नहीं सकतीं? या, यह कि हमने दहेज लिया ही कहां है! वो तो लड़की के पिता ने खुद अपनी लाडली के प्रेम में इतना सारा दे डाला। अब, हम कैसे किसी की भावना को ठुकरा सकते थे? एक अजीब किस्म का दोगलापन हमारे आसपास बिखरा हुआ है। कथनी-करनी में भयानक खाईं। बातें सुनिए तो लगेगा कि इनसे महान कोई हो ही नहीं सकता। लेकिन काम देखिए तो पता चलता है कि इनसे बड़ा धूर्त और मक्कार नहीं हो सकता है। भड़ास मीडिया ने हमारा हीरो नाम की सीरीज चला रखी है। इसमें रामकृपाल से लेकर पुण्य प्रसून वाजपेयी और अजय उपाध्याय जैसे अनेक दिग्गज अपनी व्यथा-कथा सुना चुके हैं। लगता है कितना महान जीवन है इनका और कितने लोकतांत्रिक विचार हैं इनके। लेकिन न्यूजरूम में पहुंचते ही इनका सारा कुछ गाव-गुप्प हो जाता है।
बात सीधी-सी है। हमारी जीवन स्थितियां ही तय करती हैं कि हम किन बातों और विचारों को अपनाएंगे। फ्लोर पर काम कर रहे हैं, सभी में एकता ज़रूरी है तो हम उनके बीच का होने के नाते टीम-वर्क और मानव गरिमा के सम्मान की वकालत करते हैं। लेकिन बॉस की कुर्सी पर पहुंचते ही वहां बने रहने की शर्तें कुछ और हो जाती हैं तो मानव गरिमा और टीम वर्क तेल लेने चला जाता है। बॉस की कुर्सी छूटते ही इंसान फिर अपनी औकात पर आ जाता है और यारी-दोस्ती की कसमें खाने लगता है।
बड़ी-बड़ी बातों से कुछ नहीं होता। हमारा दिमाग कुछ भी कूड़ा-कचरा जमा करके नहीं रखता। या तो फेंक देता है या उन्हें रि-साइकल कर अपने काम का बना लेता है। हमारे धार्मिक साहित्य में भी पात्रता-कुपात्रता की बात की गई है। जीवनयापन और हमारी सामाजिक स्थितियां ही हमारी पात्रता तय करती हैं। तय करती है कि कितनी सूचनाएं और ज्ञान हमारे लिए ज़रूरी है। इसी से निर्धारित होता है कि बर्तन एक लीटर का होगा या पचास-सौ लीटर का। हां, हम अपनी आंखें औरों के सपने से जोड़कर बर्तन की गहराई और चौड़ाई बढ़ा भी सकते हैं। लेकिन टिकेगा उतना ही, जितना ज़िंदगी तय करेगी। बाकी सारा ओवरफ्लो कर जाएगा। उन लोगों के पास तो कुछ भी नहीं टिकता जिनकी जीवन स्थितियां ही अवसरवाद की देन हैं। तली में छेद हो तो ऊपर से कितना भी डालो, निकलता ही जाएगा। ऐसे लोग नामवर आलोचक तो बन सकते हैं, कुछ रच नहीं सकते।
बात इतनी भर नहीं है कि ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है, इच्छा क्यों पूरी हो मन की। बल्कि, समाज की उत्पादन प्रक्रिया में, रचनाशीलता के कर्म में आपकी यथास्थिति क्या बनती है, मान-सम्मान ओहदा बनाए रखने के लिए ज़रूरी क्या है, इसी से तय होते हैं आपके जीवन के व्यावहारिक विचार। बाकी सब सैद्धांतिक लफ्फाज़ी है, स्वांग है जो दूसरों पर असरकारी हो सकता है, अपनों पर नहीं। इसीलिए मियां जब बैठकखाने में किसी के सामने ज्ञान ठेलने की हद कर देते हैं तो बीवी अंदर से आकर बोल ही देती है – चलो अब बंद करो। बहुत हुआ। और भी कुछ करना-धरना है कि नहीं।
तस्वीर साभार: Lady-Bug
Comments
आपने बहुत व्यवहारिक बात लिखी है। सच्ची बात हमेशा दिल को अच्छी लगती है। और हाँ, हिन्दुस्तान के ब्लॉग चर्चा में भी आपका जिक्र बहुत खूबसूरत ढंग से देखने को मिला। बधाई।
उन लोगों के पास तो कुछ भी नहीं टिकता जिनकी जीवन स्थितियां ही अवसरवाद की देन हैं।
चारों तरफ नज़र दौड़ाने पर...मुझे तो सिर्फ ऐसे ही लोग सफल नज़र आते हैं,
उसके अलावा जितना कुछ आपने कहा मुझे भी ऐसा ही लगता है,दुनिया मुझे भी नज़र आती है, लेकिन जब मैं ये सब कहती हूं तब कुछ कथित बुद्धिजीवी कहते हैं अपना दिमाग दुरुस्त करिए कुछ अच्छा पढिए और दिमाग से निगेटिविटी निकालिए... मैं समझ नहीं पाती,मेरी सोच गलत है या उनके हिसाब से मेरी सोच नहीं है,इसलिए मैं गलत हूं....।
Marxism is the guide to what we do.Ideologically the history of class struggle has been at loss as no debate of this type as you have been doing at your blogs was initiated by the Marxists.Amongst so many others,this one has been a reason not to understand the dynamics of Indian society.
Once again a lot of thanks for all your blogs.
आपकी कही खरी-खरी को
समझ पाना आसान नहीं है.
फिर भी कहने और करने के बीच के
फासले के सबब की दमदार
पड़ताल की है आपने...
ऊपर अन्ग्रेज़ी वाली टिप्पणी में
दिया गया द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का हवाला
और द्विवेदी जी की टिप्पणी में जो मर्म है
उसकी रौशनी में भी आपकी कलम का
फलसफ़ा खुल-सा रहा है.
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आभार
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
बहुत सी बातेँ हैँ जो सब सोचते हैँ, समझते हैँ लेकिन उस पर टिप्पणी करने से कतराते हैँ. आप बेबाकी से कह डालते हैँ और क्या होता है, दिल्ली के प्रीत विहार बस स्टैँड को बेहतर पता है. इमानदार आदमी कहीँ नहीँ टिकने दिया जाता. उदाहरण आपके आस-पास बिखरे हैँ.
सँगीता पुरी जी को मैँ नहीँ जानता, लेकिन कहना चाहूँगा, निगेटिविटी को बाहर निकालने की सलाह देने वाले अमूमन अपने अँदर निगेटिविटी सँजोए रखते हैँ.
सँदीप