Tuesday 2 September, 2008

क्या बाढ़ राहत में कंपनियों का कोई दायित्व नहीं!

बिहार की प्रलयंकारी बाढ़ राष्ट्रीय आपदा है। ये शर्म की बात है कि हमारा राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन तंत्र बाढ़ की विभीषिका को कम करने में नाकाम रहा है। लेकिन इससे भी ज्यादा शर्म की बात है कि राहत में बंटनेवाली सारी सामग्री के खर्च से इन्हें बनानेवाली कंपनियों को पूरी तरह बरी रखा गया है। खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने व्यवस्था दी है कि कंपनियों को एक्साइज़ या उत्पाद शुल्क समेत राहत सामग्रियों की पूरी कीमत दी जाए। उन्होंने वित्त मंत्रालय से ऐसा पैकेज तैयार करने को कहा है जिससे भोजन सामग्रियों के पैकेट और पुनर्निमाण कामों में इस्तेमाल होनेवाले लोहे, इस्पात और सीमेंट की एक्साइज समेत पूरी कीमत इन्हें सप्लाई करनेवाली कंपनियों को मिले, जिसके बाद एक्साइज का हिस्सा इन्हें खरीदनेवाली एजेंसियों को लौटा दिया जाए।

कहा जा सकता है कि टैक्स तो टैक्स है। कोई सरकार खुद इसे कैसे छोड़ सकती है। आखिर राजा हरिश्चंद्र तक ने अपने इकलौते बेटे के शवदाह की कीमत अपनी पत्नी से वसूल ली थी। लेकिन यहां मामला अलग है। सरकार इस हाथ ले, उस हाथ दे की नीति पर अमल कर रही है। वह एक तरफ कंपनियों को एक्साइज़-समेत पूरी कीमत मिलने की गारंटी कर रही है, दूसरी तरफ वित्त मंत्रालय को हिदायत दे रही है कि इस तरह मिले उत्पाद शुल्क को वह खरीदनेवाली एजेंसियों को वापस लौटा दे।

आप कहेंगे कि इसमें गलत क्या है। तो गलत यह है कि बाढ़ राहत में लगे गैर सरकारी संगठनों, स्वयंसेवी संस्थाओं, निजी व सरकारी उद्यमों या पुनर्वास संगठनों को पहले पूरी कीमत अदा करनी पड़ेगी। फिर उन्हें इस कीमत में शामिल उत्पाद शुल्क का रिफंड पाने के लिए सरकारी दफ्तरों का चक्कर काटना पड़ेगा। और, आप जानते ही हैं कि हमारे बाबुओं और अफसरों को ‘चायपानी’ पाए बगैर सरकारी जेब ढीली करने की आदत नहीं है। इसके बजाय अगर राहत सामग्रियां सप्लाई करनेवाली कंपनियों को कह दिया जाता कि इस राष्ट्रीय आपदा में योगदान करना उनका भी फर्ज बनता है तो राहत का काम नौकरशाही मकड़जाल से बच जाता।

ऐसा नहीं है कि बड़ी कंपनियां या कॉरपोरेट घराने इसमें योगदान नहीं कर रहे। कइयों ने बाढ़ राहत कोष के नाम पर कर्मचारियों से लेकर सप्लायरों से करोड़ों का चंदा इकट्ठा किया होगा। ये सारा पैसा वे राष्ट्रीय आपदा कोष में जमा करेंगे। लेकिन उनकी यह पूरी की पूरी रकम उनकी करयोग्य आय से घटा दी जाएगी। यानी, आम के आम और गुठलियों के भी दाम। क्या बाढ़ में फंसे 30 लाख से ज्यादा देशवासियों के लिए हमारी कंपनियों का कोई फर्ज़ नहीं बनता? क्या वो सिर्फ मुनाफा कमाने के लिए हैं? क्या देश के प्रति उनका कोई दायित्व नहीं बनता? और, हमारी सरकार राष्ट्रीय आपदा के समय भी बड़ी-बड़ी कंपनियों के हितों की रक्षा में क्यों जुटी हुई है?

7 comments:

मुंहफट said...

ye koi nayi baat nahin hai bhaiji
laluuuu, nitishhhhh ki jai ho, janta jaye bhad me.

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

आपदा सहायता में भी बिजनेस की बात सरकार नहीं भूल रही...। सरकारी बाबूतंत्र यूँ ही नहीं फल-फूल रहा है...

Dr. Chandra Kumar Jain said...

क्या बाढ़ में फंसे 30 लाख से ज्यादा देशवासियों के लिए हमारी कंपनियों का कोई फर्ज़ नहीं बनता?

बेशक दायित्व बनता है.
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन

दिनेशराय द्विवेदी said...

कंपनियाँ खुद आगे क्यों नहीं आती?

सुनीता शानू said...

अनिल भाई आप बिलकुल ठीक कर रहे हैं इस समय भी सरकार को बिजनेस की सुध लगी है,वैसे यही सच हैं इस समय नेता अपनी-अपनी रोटी सेकने में लगे हैं, कोसी नदी नही इसकी जिम्मेदार भ्रष्ट राजनेताओ की राजनिती है...
सुनीता

कामोद Kaamod said...

दायित्व बनता है.
पर बाजारवाद के इस दौर में व्यापार सर्वोपरि हो जाता है सबके लिए.

JAGSEER said...

There is a scene in the novel 'Germinater' by Emil Jola where an old man turned into a huffy by the barbarism of the bourgeoisie is aroused at the merciful act of donating food by a young girl from the elites. He murders the same girl.
Let the rich be away from these poor. The bourgeoisie and the nature used to loot every thing from the poor. Yes, some philanthropic minded gentleman always and eagerly wait for this type of situation to loot the very dignity of man.