Wednesday 3 September, 2008

ताकि हमेशा कायम रहे अपने पर अटूट आस्था

आस्था में बड़ी ताकत होती है और संजय भाई ठीक कहते हैं कि बहुतेरे लोग आस्था की वजह से ही निराशा के दौर से उबरकर आत्महत्या से बच जाते हैं। लेकिन आस्था किस पर? किसी बाह्य सत्ता पर या अपनी संघर्ष क्षमता पर!!! ज्यादातर लोगों में ये दोनों ही आस्थाएं होती हैं। लेकिन कहते हैं कि भगवान भी उसी की मदद करता है जो अपनी मदद करता है। इस नीति वाक्य को आधार बनाएं तो इन दोनों में से अपनी संघर्ष क्षमता या अपने ऊपर आस्था ही प्राथमिक और निर्णायक है। जिसकी अपने पर आस्था खत्म हुई, समझो वह निपट लिया।

इसी आस्था को मजबूत करने की कोशिश की थी मैंने यह लिखकर कि कण-कण में भगवान नहीं, कण-कण में संघर्ष है। यही संघर्ष आकर्षण-विकर्षण का भी सबब बनता है। जुड़ने-बिछुड़ने की अनंत क्रिया चलती रहती है। अनुनाद सही कहते हैं कि, “यदि देखना चाहें तो आपको कण-कण में आकर्षण देखने को मिल सकता है। ...हाइड्रोजन और आक्सीजन के परमाणु आकर्षित होकर एक साथ रहते हैं - इसी से पानी बनता है।” इसी लेख के संदर्भ में मैंने परमहंस सत्यानंद का एक लेख देखा जो विस्फोट पर काफी पहले छपा था और जिसका शीर्षक था – संघर्ष की अनिवार्यता।

इसमें परमहंस सत्यानंद कहते हैं, “जब तक कोई देश या वहां के लोग जीवित रहने के लिए, विकास के लिए संघर्ष करते रहते हैं तब तक वे शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से स्वस्थ रहते हैं। किन्तु ज्यों ही संघर्ष समाप्त होता है, उनको अपनी आवश्यकता की सारी वस्तुएं प्राप्त हो जाती हैं, त्यों ही आत्महत्या की संख्या में वृद्धि होने लगती है। ...स्वीडन एक आदर्श कल्याणकारी देश है। आपको वहां आसानी से काम मिल जाएगा। जो भी चाहो आसानी से मिल जाएगा। फिर भी स्वीडन में आत्महत्याओं की संख्या सर्वाधिक है। आपको संघर्ष की अनिवार्यता को समझना होगा। यह जीवन योजना का हिस्सा है।”

मैंने भी अपने अनुभव से देखा है कि जब तक इंसान में बाहरी स्थितियों से लड़ने की आदिम जिजीविसा और संघर्ष की भावना ज़िंदा रहती है, तब तक वो लड़ता रहता है। बुरा लग सकता है, फिर भी कहता हूं कि जब तक इंसान के भीतर का पशु ज़िंदा रहता है, वह कभी आत्महत्या नहीं करता। सभ्यता के विकास के बाद के बहुत सारे विचारों और बहुत सारी धारणाओं ने बाहरी प्रकृति से लड़ने की बुनियादी इंसानी सोच पर कोहरा डाल दिया है। हमें इस कोहरे को छांटना होगा। विचारों की आग से इसे बूंद-बूंद भस्म करना होगा। इसलिए सिद्धार्थ भाई, मुझे लगता है कि हम संघर्ष के तत्व को ब्रह्म नहीं मान सकते।

मैं तो मानना हूं कि हमें हर उस विचार से जंग लड़नी होगी जो इंसान को कमज़ोर बनाता है। शायद आप में कोई भी इंसान को कमज़ोर होते नहीं देखना चाहता। तो, आप भी हर ऐसे विचार की शिनाख्त कीजिए जो हमें कमज़ोर करते हैं और हम सब मिलकर ऐसे विचारों को एक दिन सूली पर लटका देंगे। मैं तो मानव को सामर्थ्यवान बनाने की इस लड़ाई का एक अदना-सा सिपाही हूं। कोई तख्ती लटकाकर मैं करूंगा क्या? दुष्यंत के शब्दों में कहूं तो...मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

अंत में एक बात और। अपने पर आस्था मतलब आत्ममुग्घता कतई नहीं है। अपने पर मोहित व्यक्ति हमेशा छला जाता है जबकि अपने पर आस्था रखनेवाला व्यक्ति मरते दम तक दम नहीं तोड़ता।

6 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

इसीलिए स्वामी विवेकानंद ने कहा - पहले स्वयं अपने पर विश्वास करो।

khushi said...

डायरी के अंश हिंदुस्तान तक पहुंच गए। बधाई।

अनुनाद सिंह said...

संघर्ष किससे किया जा रहा है, महत्व रखता है। यदि आपस में ही संघर्ष होता रहे तो क्या होगा?

Dr. Chandra Kumar Jain said...

अंत में एक बात और। अपने पर आस्था मतलब आत्ममुग्घता कतई नहीं है। अपने पर मोहित व्यक्ति हमेशा छला जाता है जबकि अपने पर आस्था रखनेवाला व्यक्ति मरते दम तक दम नहीं तोड़ता।

बिल्कुल सही.
दुष्यंत का शे'र भी माकूल है
परन्तु उसमें 'मगर' की जगह पर
'लेकिन' होना चाहिए था.
ये और बात है कि आपके विचार
उससे प्रभावित कतई नहीं हुए.
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आपको नियमित पढने की
आदत-सी हो गयी है......आभार.
डॉ.चन्द्रकुमार जैन

महुवा said...

आज हिंदुस्तान में आपकी डायरी का ज़िक्र था...बधाई
साथ ही आपको धन्यवाद भी मेरा लिखा पढ़ने के लिए औऱ सराहने के लिए....कोशिश कर रही हूं,अच्छा लिखने की...।

डा. अमर कुमार said...

.

इस आलेख के एक एक शब्द से सहमत,
एक ’ अच्छी विवेचना ’ का प्रमाणपत्र देकर इसको ख़ारिज़ नहीं किया जा सकता ।