Wednesday 11 February, 2009

साथ में अपना भी भला हो जाता है, क्या बुरा है?

अंग्रेजों ने गुलाम देश में रेल बिछा दी। इसलिए कि माल के आने-जाने में आसानी हो जाए। दूरदराज तक पहुंचना सुगम हो जाए। ज्यादा भला उनका हुआ, ब्रिटेन में बैठी उनकी कंपनियों का हुआ। लेकिन हम भारतवासियों का भी कुछ भला हो गया है। अच्छा है, क्या बुरा है?

इधर मुंबई की बेस्ट बसों में सीसीटीवी कैमरे के साथ फ्लैट स्कीन टीवी भी लग गए हैं। किस कंपनी के हैं, ध्यान से देखा नहीं है। शायद सैमसंग के हैं। लेकिन बस में टीवी के दो स्क्रीन देखने पर अच्छा लगा। दस मिनट का सफर पांच मिनट में कट गया। मंदी के दौर में कंपनी के फ्लैट टीवी स्क्रीन बिक गए। कई करोड़ की कमाई हो गई होगी। अपना क्या जाता है, जो गया बेस्ट और महाराष्ट्र सरकार के बजट से। सुरक्षा के साथ-साथ मनोरंजन का इंतजाम भी! खांसी को फांसी, सर्दी को तड़ीपार। एक रुपए में दो, दो रुपए में पांच। क्या बुरा है? कंपनी को फायदा हुआ तो अपन को भी तो कुछ मिल गया।

दिल्ली में फ्लाईओवर बन गए, सड़कें चौड़ी और चकाचक हो गईं। रेल सेवाएं बढ़ रही हैं। बिजली की उपलब्धता बढ़ाई जा रही है। ये सच है कि सारा कुछ प्रति किलोमीटर लागत घटाने के लिए हो रहा है। इंफ्रास्ट्रक्चर दुरुस्त हो रहा है। मुंबई किसी दिन शांघाई बन जाएगा। विदेशी निवेशकों को भारत आने पर होम-सिकनेस नहीं महसूस होगी। ज्यादा फायदा उनका होगा। लेकिन अपुन को भी बहुत कुछ मिल जाएगा। अच्छा है। क्या बुरा है।

अपने गांव में चंद घंटों को बिजली आती है। काश, उद्योग-धंधे लग जाते। जमीन जाए तो चली जाए। सबको नहीं तो कुछ को तो रोज़गार मिलेगा। बाकी बहुत सारे उनको रोज़गार मिलने से बारोज़गार हो जाएंगे। हो सकता है कि उद्योग के लिए आ रही बिजली सबको मिलने लगे। क्या बुरा है। अच्छा है। रही-सही ज़मीन को रखकर क्या करेंगे? उसके न रहने से क्या फर्क पड़ेगा? कुछ होता-हवाता तो है नहीं। बहिला गाय या भैंस की तरह उसे पालते जाने का क्या फायदा। अब छोटी खेती-किसानी का ज़माना लद चुका है। हरिऔध ने कहा था कि उत्तम खेती, मध्यम बान, निपट चाकरी भीख निदान। लेकिन आज तो नौकरी-चाकरी में ही भलाई है। आखिर, औद्योगिकीकरण के अलावा कोई चारा भी तो नहीं है। मालिक बनने का हुनर है नहीं तो नौकरी ही सही। इसी में अपना भला है। क्या बुरा है?

7 comments:

Gyan Dutt Pandey said...

सब ओर कैपिटलिज्म आ ही रहा है, जबरी। क्या बुरा है!

ab inconvenienti said...

गिरते गिरते नौकरी चाकरी तक तो पहुँच ही गए हैं, अब तो भीख को ही उत्तम मानाने की नौबत आने वाली है (यू नेवर नो...)

दिनेशराय द्विवेदी said...

अपनी हैसियत के मुताबिक पूंजीवाद आएगा भी और छाएगा भी, समाजवाद और साम्यवाद तो उस के बाद के हैं। पूंजीवाद न आया और न छाया तो गाड़ी यहीं अटकी रहनी है। और पूंजीवाद सामंतवाद से तो बेहतर है ही।

Anonymous said...

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संकेत पाठक... said...

भाई देश का औद्योगिकीकरण होना अच्छी बात है, इस बहाने हम सबको कुछ न कुछ मिल रहा है तो क्यों बात को खेंचे..

काशिफ़ आरिफ़/Kashif Arif said...

अनिल जी बधाई काफ़ी अच्छा लिखते हैं,

neera said...

विदेशी निवेशकों की तो होमसिकनेस तो बढ़ रही है क्योंकि छोड़े हुए भारत की छवि और पहचान बदल रही है...