मियां, तुम होते कौन हो!!!

यह कहानी हमारे जैसे एक आम हिंदुस्तानी की है जो अपनी पहचान को लेकर परेशान है। इतना कि धर्म तक बदल लेता है। कहानी लिखी तो गई थी करीब सवा साल पहले। लेकिन आज हमारे मुखर समाज में जिस तरह का धुव्रीकरण हो रहा है, उसमें धूमिल के शब्दों में कहूं तो जिसकी पूंछ उठाओ, मादा निकलता है, प्यारे-से तेवरों वाला अच्छा-खासा आदमी चौदह सौ सालों की गुलामी की बात करने लगता है, उसका आत्मसम्मान, उसकी ऊर्जा, उसकी राष्ट्रभक्ति उसे उठाकर किसी खेमे में बैठा देती है, तब मुझे बड़ी सांघातिक पीड़ा होती है। इसीलिए आज यह कहानी फिर से पेश कर रहा हूं।

इसे मैने हंस में राजेंद्र यादव नाम के कथाकार-साहित्यकार संपादक के पास भी भेजा था। लेकिन पारखी-जौहरी बड़े लोग हैं, ठेका चलाते हैं तो परवाह ही नहीं की। हां, मैं शारजाह में रहनेवाली पूर्णिमा वर्मन जी का ज़रूर शुक्रिया अदा करना चाहता हूं जिन्होंने बिना किसी जान-पहचान या सिफारिश के मेरी यह कहानी अभिव्यक्ति में छाप दी। आप इसे अभिव्यक्ति की साइट पर पूरा पढ़ सकते हैं। साथ ही अपने ब्लॉग में इसे मैंने सात पोस्टों में लिखा था। उनके लिंक क्रमबद्ध रूप से दे रहा हूं। हर लिंक क्लिक करने पर आपको कहानी के उस अंश में ले जाएगा। हो सकता है, आप में से पुराने बंधुओं ने यह कहानी पढ़ी हो। लेकिन शायद बहुत से नए साथियों ने नहीं। उम्मीद है, यह कहानी आपको सोचने का कुछ मसाला ज़रूर दे जाएगी।

1. मतीन बन गया जतिन
जतिन गांधी का न तो गांधी से कोई ताल्लुक है और न ही गुजरात से। वह तो कोलकाता के मशहूर सितारवादक उस्ताद अली मोहम्मद शेख का सबसे छोटा बेटा मतीन मोहम्मद शेख है। अभी कुछ ही दिनों पहले उसने अपना धर्म बदला है। फिर नाम तो बदलना ही था। ये सारा कुछ उसने किसी के कहने पर नहीं, बल्कि अपनी मर्ज़ी से किया है। नाम जतिन रख लिया। उपनाम की समस्या थी तो उसे इंदिरा नेहरू और फिरोज खान की शादी का किस्सा याद आया तो गांधी उपनाम रखना काफ़ी मुनासिब लगा। वैसे, इसी दौरान उसे ये चौंकानेवाली बात भी पता लगी कि इंदिरा गांधी के बाबा मोतीलाल नेहरू के पिता मुसलमान थे, जिनका असली नाम ग़ियासुद्दीन गाज़ी था और उन्होंने ब्रिटिश सेना से बचने के लिए अपना नाम गंगाधर रख लिया था।...






Comments

"सत्ता के दावेदार अपने-अपने तरीके से इतिहास की व्याख्या करते हैं।" सचमुच,इतिहास तो विजयी के चाटुकार ही लिखते हैं। आपकी कलम को नमस्कार किया था।
मियाँ तुम होते कौन हो शीर्षक है अभिव्यक्ति में । दो महिने पहले ही पढी थी। अब दोबारा पढ रहा हूं।
Ghost Buster said…
पढ़ते हैं.
बहुत कुछ कहने वाली कहानी है। लेकिन उतना असर पैदा नहीं कर पा रही है, जितना सोचा गया हो।

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