हिंदू कट्टरपंथ देश को जोड़ता नहीं, तोड़ता है: लोहिया
बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह का कहना है कि कश्मीर घाटी में जो भी पाकिस्तान का झंडा फहराए, उसे गोली मार दो। सुनने में यह ठकुरई अंदाज़ बड़ा अच्छा लगता है। लेकिन राजनाथ की इस ललकार में अलगाव का ऐसा बीज छिपा है जो अलगाववादियों से कहीं ज्यादा खतरनाक है। प्रसिद्ध विचारक और राजनेता राम मनोहर लोहिया ने जुलाई 1950 में हिंदू धर्म में कट्टरपंथ और उदारपंथ के संघर्ष पर एक लेख लिखा था, जिसे अफलातून भाई ने करीब डेढ़ साल पहले अपने ब्लॉग पर हिंदू बनाम हिंदू शीर्षक से छापा था। हाल ही में उन्होंने इसे अपनी आवाज़ में भी पेश किया है। उसी लेख के संपादित अंश पेश कर रहा हूं।
आमतौर पर माना जाता है कि सहिष्णुता हिन्दुओं का विशेष गुण है। यह गलत है सिवाय इसके कि खुला उत्पात अभी तक उसे पसन्द नहीं रहा। हिन्दू धर्म में कट्टरपंथी हमेशा प्रभुताशाली मत के अलावा अन्य मतों और विश्वासों का दमन करके एकरूपता कायम करने की कोशिश करते रहे हैं लेकिन उन्हें कभी सफलता नहीं मिली। हिन्दू धर्म में सहिष्णुता की बुनियाद यह है कि अलग-अलग बातें भी अपनी जगह पर सही हो सकती हैं। वह मानता है कि अलग-अलग क्षेत्रों और वर्गों में अलग सिद्धान्त और चलन हो सकते हैं और उनकी बीच वह कोई फैसला करने को तैयार नहीं। उसमें सहिष्णुता का गुण इस विश्वास के कारण है कि किसी भी जिंदगी में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, इस विश्वास के कारण कि अलग-अलग बातें गलत ही हों, यह जरूरी नहीं है, बल्कि वे सच्चाई को अलग-अलग ढंग से व्यक्त कर सकती हैं।
कट्टरपंथियों की कोशिशों के पीछे अक्सर शायद स्थायित्व और शक्ति की इच्छा थी। लेकिन उनके कामों के नतीजे हमेशा बहुत बुरे हुए। मैं भारतीय इतिहास का एक भी ऐसा काल नहीं जानता जिसमें कट्टरपंथी हिन्दू धर्म भारत में एकता या खुशहाली ला सका हो। जब भी भारत में एकता या खुशहाली आई, तो हमेशा वर्ण, स्त्री, सम्पत्ति, सहिष्णुता आदि के सम्बन्ध में हिन्दू धर्म में उदारवादियों का प्रभाव अधिक था। हिन्दू धर्म में कट्टरपंथी जोश बढ़ने पर हमेशा देश सामाजिक और राजनीतिक दृष्टियों से टूटा है और भारतीय राष्ट्र में, राज्य और समुदाय के रूप में बिखराव आया है। मैं नहीं कह सकता कि ऐसे सभी काल, जिनमें देश टूट कर छोटे-छोटे राज्यों में बंट गया, कट्टरपंथी प्रभुता के काल थे। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि देश में एकता तभी आई जब हिन्दू दिमाग पर उदार विचारों का प्रभाव था।
आधुनिक इतिहास में देश में एकता लाने की कई बड़ी कोशिशें असफल हुईं। ज्ञानेश्वर का उदार मत शिवाजी और प्रथम बाजीराव के काल में अपनी चोटी पर पहुंचा। लेकिन सफल होने के पहले ही पेशवाओं की कट्टरता में गिर गया। फिर गुरु नानक के उदार मत से शुरू होनेवाला आन्दोलन रणजीत सिंह के समय अपनी चोटी पर पहुंचा, लेकिन जल्द ही सिक्ख सरदारों के कट्टरपंथी झगड़ों में पतित हो गया। इन सब में भारतीय इतिहास के विद्यार्थी के लिए पढ़ने और समझने की बड़ी सामग्री है जैसे धार्मिक सन्तों और देश में एकता लाने की राजनीतिक कोशिशों के बीच कैसा निकट सम्बन्ध है या कि पतन के बीज कहां हैं, बिलकुल शुरू में या बाद की किसी गड़बड़ी में या कि इन समूहों द्वारा अपनी कट्टरपंथी सफलताओं को दुहराने की कोशिशों के पीछे क्या कारण हैं?
केवल उदारता ही देश में एकता ला सकती है। हिन्दुस्तान बहुत बड़ा और पुराना देश है। मनुष्य की इच्छा के अलावा कोई शक्ति इसमें एकता नहीं ला सकती। कट्टरपंथी हिन्दुत्व अपने स्वभाव के कारण ही ऐसी इच्छा नहीं पैदा कर सकता। लेकिन उदार हिन्दुत्व कर सकता है, जैसा पहले कई बार कर चुका है। हिन्दू धर्म संकुचित दृष्टि से, राजनीतिक धर्म, सिद्धान्तों और संगठन का धर्म नहीं है। लेकिन राजनीतिक देश के इतिहास में एकता लाने की बड़ी कोशिशों को इससे प्रेरणा मिली है और उनका यह प्रमुख माध्यम रहा है। हिन्दू धर्म में उदारता और कट्टरता के महान युद्ध को देश की एकता और बिखराव की शक्तियों का संघर्ष भी कहा जा सकता है।
उदार और कट्टरपंथी हिन्दुत्व के महायुद्ध का बाहरी रूप आजकल यह हो गया है कि मुसलमानों के प्रति क्या रुख हो। लेकिन हम एक क्षण के लिए भी यह न भूलें कि यह बाहरी रूप है और बुनियादी झगड़े जो अभी तक हल नहीं हुए, कहीं अधिक निर्णायक हैं। अब तक हिन्दू धर्म के अन्दर कट्टर और उदार एक-दूसरे से जुड़े क्यों रहे और अभी तक उनके बीच कोई साफ और निर्णायक लड़ाई क्यों नहीं हुई, यह एक ऐसा विषय है जिस पर भारतीय इतिहास के विद्यार्थी खोज करें तो बड़ा लाभ हो सकता है।
जब तक हिन्दुओं के दिमाग में वर्णभेद बिल्कुल ही खतम नहीं होते, या स्त्री को बिल्कुल पुरुष के बराबर ही नहीं माना जाता या सम्पत्ति और व्यवस्था के सम्बन्ध को पूरी तरह तोड़ा नहीं जाता, तब तक कट्टरता भारतीय इतिहास में अपना विनाशकारी काम करती रहेगी। अन्य धर्मों की तरह हिन्दू धर्म सिद्धान्तों और बंधे हुए नियमों का धर्म नहीं है बल्कि सामाजिक संगठन का एक ढंग है और यही कारण है कि उदारता और कट्टरता का युद्ध कभी समाप्ति तक नहीं लड़ा गया और ब्राह्मण-बनिया मिलकर सदियों से देश पर अच्छा या बुरा शासन करते आए हैं जिसमें कभी उदारवादी ऊपर रहते हैं कभी कट्टरपंथी।
आमतौर पर माना जाता है कि सहिष्णुता हिन्दुओं का विशेष गुण है। यह गलत है सिवाय इसके कि खुला उत्पात अभी तक उसे पसन्द नहीं रहा। हिन्दू धर्म में कट्टरपंथी हमेशा प्रभुताशाली मत के अलावा अन्य मतों और विश्वासों का दमन करके एकरूपता कायम करने की कोशिश करते रहे हैं लेकिन उन्हें कभी सफलता नहीं मिली। हिन्दू धर्म में सहिष्णुता की बुनियाद यह है कि अलग-अलग बातें भी अपनी जगह पर सही हो सकती हैं। वह मानता है कि अलग-अलग क्षेत्रों और वर्गों में अलग सिद्धान्त और चलन हो सकते हैं और उनकी बीच वह कोई फैसला करने को तैयार नहीं। उसमें सहिष्णुता का गुण इस विश्वास के कारण है कि किसी भी जिंदगी में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, इस विश्वास के कारण कि अलग-अलग बातें गलत ही हों, यह जरूरी नहीं है, बल्कि वे सच्चाई को अलग-अलग ढंग से व्यक्त कर सकती हैं।
कट्टरपंथियों की कोशिशों के पीछे अक्सर शायद स्थायित्व और शक्ति की इच्छा थी। लेकिन उनके कामों के नतीजे हमेशा बहुत बुरे हुए। मैं भारतीय इतिहास का एक भी ऐसा काल नहीं जानता जिसमें कट्टरपंथी हिन्दू धर्म भारत में एकता या खुशहाली ला सका हो। जब भी भारत में एकता या खुशहाली आई, तो हमेशा वर्ण, स्त्री, सम्पत्ति, सहिष्णुता आदि के सम्बन्ध में हिन्दू धर्म में उदारवादियों का प्रभाव अधिक था। हिन्दू धर्म में कट्टरपंथी जोश बढ़ने पर हमेशा देश सामाजिक और राजनीतिक दृष्टियों से टूटा है और भारतीय राष्ट्र में, राज्य और समुदाय के रूप में बिखराव आया है। मैं नहीं कह सकता कि ऐसे सभी काल, जिनमें देश टूट कर छोटे-छोटे राज्यों में बंट गया, कट्टरपंथी प्रभुता के काल थे। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि देश में एकता तभी आई जब हिन्दू दिमाग पर उदार विचारों का प्रभाव था।
आधुनिक इतिहास में देश में एकता लाने की कई बड़ी कोशिशें असफल हुईं। ज्ञानेश्वर का उदार मत शिवाजी और प्रथम बाजीराव के काल में अपनी चोटी पर पहुंचा। लेकिन सफल होने के पहले ही पेशवाओं की कट्टरता में गिर गया। फिर गुरु नानक के उदार मत से शुरू होनेवाला आन्दोलन रणजीत सिंह के समय अपनी चोटी पर पहुंचा, लेकिन जल्द ही सिक्ख सरदारों के कट्टरपंथी झगड़ों में पतित हो गया। इन सब में भारतीय इतिहास के विद्यार्थी के लिए पढ़ने और समझने की बड़ी सामग्री है जैसे धार्मिक सन्तों और देश में एकता लाने की राजनीतिक कोशिशों के बीच कैसा निकट सम्बन्ध है या कि पतन के बीज कहां हैं, बिलकुल शुरू में या बाद की किसी गड़बड़ी में या कि इन समूहों द्वारा अपनी कट्टरपंथी सफलताओं को दुहराने की कोशिशों के पीछे क्या कारण हैं?
केवल उदारता ही देश में एकता ला सकती है। हिन्दुस्तान बहुत बड़ा और पुराना देश है। मनुष्य की इच्छा के अलावा कोई शक्ति इसमें एकता नहीं ला सकती। कट्टरपंथी हिन्दुत्व अपने स्वभाव के कारण ही ऐसी इच्छा नहीं पैदा कर सकता। लेकिन उदार हिन्दुत्व कर सकता है, जैसा पहले कई बार कर चुका है। हिन्दू धर्म संकुचित दृष्टि से, राजनीतिक धर्म, सिद्धान्तों और संगठन का धर्म नहीं है। लेकिन राजनीतिक देश के इतिहास में एकता लाने की बड़ी कोशिशों को इससे प्रेरणा मिली है और उनका यह प्रमुख माध्यम रहा है। हिन्दू धर्म में उदारता और कट्टरता के महान युद्ध को देश की एकता और बिखराव की शक्तियों का संघर्ष भी कहा जा सकता है।
उदार और कट्टरपंथी हिन्दुत्व के महायुद्ध का बाहरी रूप आजकल यह हो गया है कि मुसलमानों के प्रति क्या रुख हो। लेकिन हम एक क्षण के लिए भी यह न भूलें कि यह बाहरी रूप है और बुनियादी झगड़े जो अभी तक हल नहीं हुए, कहीं अधिक निर्णायक हैं। अब तक हिन्दू धर्म के अन्दर कट्टर और उदार एक-दूसरे से जुड़े क्यों रहे और अभी तक उनके बीच कोई साफ और निर्णायक लड़ाई क्यों नहीं हुई, यह एक ऐसा विषय है जिस पर भारतीय इतिहास के विद्यार्थी खोज करें तो बड़ा लाभ हो सकता है।
जब तक हिन्दुओं के दिमाग में वर्णभेद बिल्कुल ही खतम नहीं होते, या स्त्री को बिल्कुल पुरुष के बराबर ही नहीं माना जाता या सम्पत्ति और व्यवस्था के सम्बन्ध को पूरी तरह तोड़ा नहीं जाता, तब तक कट्टरता भारतीय इतिहास में अपना विनाशकारी काम करती रहेगी। अन्य धर्मों की तरह हिन्दू धर्म सिद्धान्तों और बंधे हुए नियमों का धर्म नहीं है बल्कि सामाजिक संगठन का एक ढंग है और यही कारण है कि उदारता और कट्टरता का युद्ध कभी समाप्ति तक नहीं लड़ा गया और ब्राह्मण-बनिया मिलकर सदियों से देश पर अच्छा या बुरा शासन करते आए हैं जिसमें कभी उदारवादी ऊपर रहते हैं कभी कट्टरपंथी।
Comments
आप इस लेख में जहां जहां कट्टरपंथी हिन्दू लिखा है वहां वहां कट्टरपंथी मुसलमान लिख दें, कट्टरपंथी वाममार्गी लिख दें तो भी यह लेख की भावना जस की तस रहेगी.
वर्णभेद और स्त्री पुरुष में गैर बराबरी की बात हो, या सम्पत्ति और व्यवस्था की बात हो इसमें सिर्फ हिन्दू को ही क्यों घसीटते हैं?
लोहिया जी ने इस लेख को लिखा तो इसका हिन्दू धर्म और संस्कृति की बात करने कुछ संदर्भ जरूर होगा. आप यहा उस संदर्भ से परे जाकर इस लेख को प्रस्तुत कर रहे हैं तो लगता है कि ...... समझ लीजिये, क्या कहना चाहता हूं
दुबारा सोचने की कोशिश कीजियेगा.
इस लेख के बाद में अफलातून के ब्लाग पर गया और वहां पाया कि आपके द्वारा प्रस्तुत पोस्ट लोहिया जी के हिन्दू बनाम हिन्दू श्रंखला का एक हिस्सा है. आपने इसे इस तरह प्रस्तुत किया है कि ये हिन्दू बनाम मुस्लिम दिखायी देता है.
कभी दूसरी आंख भी खोल लिया कीजिये. समदर्शी होकर सोचें तो आपकी रपट कुछ ज्यादा तथ्यपूर्ण हो सकती है.
लोहिया के लेख का जिक्र करने से पहले उसके संदर्भ को भी जानें. सजग भारतीय होने के लिए सिर्फ किसी समुदाय (मुस्लिम))
का अंध समर्थक या होना जरुरी नहीं होता है.
धन्यवाद.
जैरम्मी लेने से आपको एलर्जी होतो भी
जैराम जी की
एसपी सिंह
आपको पता हो तो जरूर बताइयेगा। लोहिया जी को पढ़ने की यहाँ क्या जरूरत है? समाजवाद पर उन्हें जरूर पढ़ा है।
regards
anurag singh