एक विलंबित सांस
वह 18 मई का दिन था। मैंने मोहल्ले पर अविनाश जी के एक मार्मिक संस्मरण पर टिप्पणी क्या कर दी, वो ही नहीं उनकी प्रशस्ति करनेवाले भी विचलित हो गए। 19 मई से लेकर आज 24 मई तक बुखार में तप रहा था तो कुछ देख ही नहीं पाया कि कहां क्या चल रहा है, खासकर हिंदी ब्लॉग की सिमटी हुई दुनिया में। अब थोड़ा ठीक हो गया हूं तो सोचा, गलतफहमियों पर सफाई दे दी जाए। मैं साफ कर दूं कि बहस करने का मेरा कोई इरादा नहीं है, न ही मैं अपने प्रतिबद्ध होने या न होने की डुगडुगी बजाने जा रहा हूं क्योंकि मुझे अच्छी तरह पता है कि मै क्या हूं और मुझे खुद से, अपने देश से, समाज से क्या पाना और देना है। इसके लिए मुझे किसी वामपंथी-पोगापंथी बुद्धिजीवी की सीख की दरकार नहीं है।
ये सच है कि मैं अविनाश जी की केवल प्रोफेशनल पहचान से वाकिफ हूं। उनके आगे-पीछे के बारे में ज्यादा नहीं जानता। लेकिन शायद वो भी मेरे बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानते, नहीं तो ऐसा नहीं लिखते कि, 'हम मानें कि हममें इतनी हिम्मत नहीं थी कि हम समाज बदलने की लड़ाई लड़ सकें। अगर ये हिम्मत होती, तो जो लड़ाई हमें अधूरी लग रही थी, उसे छोड़ कर लड़ाई का ही कोई दूसरा रास्ता खोजते। न कि अपने दाल-भात के जुगाड़ में लड़ाई से भाग खड़े होते।'
साथी, मुझ में ही नहीं, अस्सी के दशक में एक सच्चे लोकतांत्रिक भारत के ख्वाब को पूरा करने की लड़ाई के लिए अपना सारा करियर होम कर देनेवाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कम से कम बीस नौजवानों (जिन्हें मैं नाम से जानता हूं) में हिम्मत तो इतनी थी कि उन्हें किसी माओ या चारु मजूमदार के नाम से प्रेरणा लेने की जरूरत नहीं थी। ये गांवों-कस्बों से आम परिवारों से ताल्लुक रखनेवाले वो नौजवान थे जिनको किसी लाल झंड़े का सम्मोहन नहीं था। वो, कांख भी ढंकी रहे और मुट्ठी भी तनी रहे, की दुनियादारी के साथ किसी अखबार के पत्रकार या संपादक बनने की जुगाड़पानी से कोसों दूर थे। लेकिन आज इनमें से इक्का-दुक्का लोग ही पुरानी क्रांतिकारी धारा के साथ जुड़े हुए हैं, वो भी एक विचित्र किस्म की, बड़ी-ही ट्रैजिक मजबूरी में।
हम लोग किसान परिवारों की कचोट लेकर इस आंदोलन में आए थे और इस सोच पर पहुंचे थे कि वर्तमान तंत्र न तो हमारी ख्वाहिशों को पूरा कर सकता है और न ही किसानों को सुंदर भविष्य दे सकता है। हमने बुद्धिजीवी बनकर दुकानें नहीं खोलीं। नक्सलवादी आंदोलन जब भयंकर तंद्रा से गुजर रहा था, तब हमने उसमें नयी ताजगी लाने का जोखिम उठाया। घर-बार छोड़ा। सालों-साल तक मजदूर कॉलोनियों और हरिजन-आदिवासी बस्तियों में रहकर उनके दुख-सुख बांटे, उनमें सुंदर भविष्य का सपना बुना, उन्हें अहसास कराया कि एक दिन ये मुल्क उनका भी होगा।
लेकिन जब चंद क्रांतिकारियों की जमात ने साबित कर दिया कि उनकी दुनिया इतनी संकीर्ण और छोटी है, कि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद उनके लिए कोई वैज्ञानिक दृष्टि नहीं, बल्कि दुकानदारी की मजबूरी के निर्वाह का परचम है, तब हमें भी मजबूरी में निकलकर जिंदा रहने का जुगाड़ करना पड़ा। बड़ी-ही तकलीफदेह यात्रा थी यह। हम किसी विचारधारा के जरखरीद गुलाम नहीं थे कि उससे चिपके रहते और न ही इतने कायर और अपाहिज थे कि भ्रांतियो की पोटली ढोते चले जाते।
हम तो संत कबीर और बुद्ध की प्रेरणा लेकर आंदोलन में उतरे थे और आज भी उस सोच पर कायम हैं। इसलिए नहीं कि हमें अब भी मार्क्सवाद-लेनिनवाद के वैज्ञानिक दर्शन पर भरोसा है, बल्कि इसलिए कि आज भी मेरा ईमानदार मास्टर-किसान बाप खुशी से चहक नहीं सकता, मेरा भाई एमएससी-एजी करने के बावजूद घर पर चारपाई तोड़ रहा है, सत्तासीनों के लिए परेशानी खड़े करनेवाले हमारे गांवों के तमाम बहादुर नौजवानों को पुलिस एनकाउंटर में दिनदहाड़े गोलियों से भून दिया जाता है।
साथी, आपके लिए क्रांति एक बौद्धिक शगल हो सकता है, लेकिन हमारे लिए ये बुनियादी जरूरत है। ये अलग बात है कि शिक्षा और बाहरी दुनिया का जो एक्सपोजर हमें मिला है, उसमें हम बदलाव की लड़ाई का कोई रास्ता नहीं निकाल पा रहे।
अविनाशजी के अजीज भक्त निखिल आनंद गिरी को लगता है कि, 'आप जैसों के साथ समस्या ये है कि आप किसी के सार्थक प्रयासों की सराहना कर सकते हैं, खुद कोई पहल करने की बात ही छोड़िए।' यकीनन, सिस्टम के खिलाफ अकेले कफन बांधकर खड़े रहे होंगे अविनाशजी या उनमें जनवादी या प्रगतिशील होने की प्रशस्ति पाने की चाह होगी, ये सोचना भी बेमानी है। लेकिन अजीज गिरी, आपके पास वो दृष्टि कहां से आ गई कि आपने देख लिया कि मेरा मन कुंठा से भरा हुआ है। ये भी बता दूं कि मैंने न तो अंधेरे में तीर चलाया था और न ही अविनाश पर कोई व्य़क्तिगत निशाना साधा था। मैंने तो अविनाश जैसों की बात की थी।
फिलहाल, साईं इतना दीजिए जामे कुटुंब समाय, मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाए...इस सोच के साथ नौकरी कर रहा हूं। लगातार, इसी पढ़ाई-लिखाई और उधेड़बुन में लगा रहता हूं कि अपने हमवतन किसानों-नौजवानों के लिए इस मुल्क की सूरत को कैसे खूबसूरत बनाया जा सकता है। जिंदगी के ऊर्जा भरे दस-बारह साल स्वाहा करने के बाद इतना समझ चुका हूं कि क्रांति करने के लिए होलटाइमरी करने या खुदकुशी करने में कोई फर्क नहीं है। और, अपने हालात को बदलने के लिए कम से कम जिंदा रहना जरूरी है, इसलिए जिंदा हूं।
Comments
लिखने को और भी लिख दूं... पर उम्मीद है कि जिनके लिए लिख रहा हूं वो थोड़े कहे का ज़्यादा समझेगें।
शुक्रिया
विचारों से सहमत होते हुए यही कहूँगा के कीचड़ से बच कर निकलना ही उत्तम है. उसमें पत्थर फ़ैंकना बेकार है
लिखते रहें। बाकी साथी लोगों सही ही कहा है कि
उकसाऊ टिप्पणियों से आहत न हों।
dekhiye main kranti, pratibaddhta, jaise shabdon ko gazar mooli ki tarah chbane ka virodhi hu. aapko saabit karna hai ki aap bahut shantchitt hokar rachnadharmita me lage hain aur bina ki teen tikadam ke apna jeewan jee rahe hain aur isase alag koi baat karne wale ko aap utejak narebaaji kah ke niptana chahte hain pramod ji ke shabdon me इस बेवजह के आक्रामक, आंदोलनकारी हल्ले में कहानी का अपना निजी पहलू आपने गहरी मार्मिकता व समझ के साथ rakhne ka bhram paale hain to mujhe lagata hai ki samaj ke thahrav ke daur me to yah sahi lag sakta hai lekin bhari utthal putthal ke samay theek nahi hoga, aur aapne kaha bhi hai ki naxalbari ke daur ke prabhav ke karan aapke kai vyaktigat mitra jude hain yah baat deegar hai ki aaj we kahan hai.
dwandatmak bhautikvaad ke sandarbh me aapki kahi baton ka jawab fir kabhi lekin ek jaroori baat ki aaj ke ghor nonpolitical mahaul me fashion ban gaya hai ki aap pratibaddhta ko, vichardhara ko, badalaw ko common sense ke star par nakar dein aur power me baithe log jaardasht propogenda chalakar apko khush rakhne ka daawa bhi karte rahein.
aur vimal bhai jaise log smart vaktava dekar mahanta bodh me fanse rahte hai bajai ki sawalon s seedhe seedhe jojhne ke, yah pravitti behad khatrnaak hai. padhe likhe tabke ka yah kartavya hai ki aisi bahson me hissa lekar naye rashton ki talash kare.
आपने बहुत अच्छा सोचा और सोचते रहिए। ऐसा करना आपके स्वास्थ्य के लिए नितांत जरूरी है क्योंकि एक खास प्रजाति को कुछ भी पचाने के लिए लंबे समय तक पागुर करना पड़ता है, भले ही वो गाजर, मूली ही क्यों न हो। क्या कीजिएगा, आपके सामने तो बीन की धुन भी आलाप लग सकती है और आलाप भी किसी का रंभाना।
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर फिर कभी क्यों, अभी लिख मारिए न। हिंदुस्तान को किसी माओ त्सेतुंग की बड़ी जरूरत है। खैर, फिलहाल आपको मेरी सलाह है कि विमल या मुझ जैसे दूसरों को सीख देने के बजाय अपनी आंखों की कीचड़ को ही साफ कर लें, तो आपको शायद अपना चेहरा नजर आ जाएगा।
फिर भी आपके निष्कपट सुझावों के लिए शुक्रिया।