काहे का बहुजन, कैसा सर्वजन!
बहनजी की हाथी सत्ता संभालते ही गर्द उड़ाने लगी है। वाचाल लोगों ने भी ऐसा गुबार उड़ाया जैसे क्रांति हो गई हो। कहा गया कि मायावती ने पंद्रह सालों बाद पूर्ण बहुमत की सरकार बनाकर कुशल रणनीतिकार होने का प्रमाण दे दिया। लेकिन बहुमत के नाम पर अल्पमत का शासन बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देता है। सोचिए, उत्तर प्रदेश में कुल मतदाता हैं 11.28 करोड़। इनमें से 5.20 करोड़ यानी 46.1% मतदाताओं ने इस बार के चुनाव में वोट डाले। इनमें से बहनजी की पार्टी को मिले 30.28% वोट। यानी, 206 सीटों के साथ उत्तर प्रदेश विधानसभा में बहुमत हासिल करनेवाली बीएसपी के साथ खड़े हैं राज्य के 1.57 करोड़ मतदाता, जो होते हैं राज्य के कुल मतदाता आबादी के महज 13.92%....
आप ही बताइए, करीब 14 फीसदी मतदाताओं को साथ लाकर बहनजी ने कौन-सा राजनीतिक भूचाल खड़ा कर दिया है। किसी समय 85-15 का आंकड़ा देकर बीएसपी कहा करती थी कि वोट हमारा, राज तुम्हारा, नहीं चलेगा-नहीं चलेगा। फिर 15 फीसदी से भी कम मतदाताओं के दम पर बहनजी किसका राज चलाने जा रही हैं? बहुजन का, सर्वजन का या अल्पजन का?
एक बात और है जो लोग बहनजी की इस सापेक्ष जीत को, हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु-महेश है जैसे नारों और सतीश चंद्र मिश्रा जैसे लोगों की सामाजिक इंजीनियरिंग का कमाल बता रहे हैं, वे एक बात भूल जा रहे हैं कि इस बार एक नारा और दिया गया था। वो ये था कि चढ़ गुंडों की छाती पर, मुहर लगेगी हाथी पर। बीएसपी ने हमेशा से तिलक-तराजू जैसे नारों के साथ ही अवाम की लोकतांत्रिक चाहतों को पूरा करनेवाले नारे भी दिए हैं, जिनका असर दलितों से लेकर सभी उपेक्षित तबकों पर पड़ा है।
इसलिए मेरी राय में बहन मायावती की जीत के गुबार में चौंधियाने के बजाय हमें असल बात को पकड़ने की कोशिश करनी चाहिए। 14 फीसदी मतदाताओं के दम पर लोकतंत्र में बहुमत का स्वांग नहीं चलना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि देश में आनुपातिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली लागू की जाए। दूसरे मायावती की ब्रिगेड अभी से जैसे रंगढंग दिखा रही है, उसमें मतदाताओं को पांच साल इंतजार करने के बजाय बीच में ही अपने चुने हुए प्रतिनिधियों को बुलाने का हक मिलना चाहिए। आनुपातिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली की वकालत तो जेपी से लेकर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी तक कर चुके हैं।
आप ही बताइए, करीब 14 फीसदी मतदाताओं को साथ लाकर बहनजी ने कौन-सा राजनीतिक भूचाल खड़ा कर दिया है। किसी समय 85-15 का आंकड़ा देकर बीएसपी कहा करती थी कि वोट हमारा, राज तुम्हारा, नहीं चलेगा-नहीं चलेगा। फिर 15 फीसदी से भी कम मतदाताओं के दम पर बहनजी किसका राज चलाने जा रही हैं? बहुजन का, सर्वजन का या अल्पजन का?
एक बात और है जो लोग बहनजी की इस सापेक्ष जीत को, हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु-महेश है जैसे नारों और सतीश चंद्र मिश्रा जैसे लोगों की सामाजिक इंजीनियरिंग का कमाल बता रहे हैं, वे एक बात भूल जा रहे हैं कि इस बार एक नारा और दिया गया था। वो ये था कि चढ़ गुंडों की छाती पर, मुहर लगेगी हाथी पर। बीएसपी ने हमेशा से तिलक-तराजू जैसे नारों के साथ ही अवाम की लोकतांत्रिक चाहतों को पूरा करनेवाले नारे भी दिए हैं, जिनका असर दलितों से लेकर सभी उपेक्षित तबकों पर पड़ा है।
इसलिए मेरी राय में बहन मायावती की जीत के गुबार में चौंधियाने के बजाय हमें असल बात को पकड़ने की कोशिश करनी चाहिए। 14 फीसदी मतदाताओं के दम पर लोकतंत्र में बहुमत का स्वांग नहीं चलना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि देश में आनुपातिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली लागू की जाए। दूसरे मायावती की ब्रिगेड अभी से जैसे रंगढंग दिखा रही है, उसमें मतदाताओं को पांच साल इंतजार करने के बजाय बीच में ही अपने चुने हुए प्रतिनिधियों को बुलाने का हक मिलना चाहिए। आनुपातिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली की वकालत तो जेपी से लेकर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी तक कर चुके हैं।
Comments
घुघूती बासूती
मायावति कैसा शासन देती है, यह भविष्य बताएगा, मगर जो हुआ है, उसे न नकारे.
वैसे जो जीता वही सिकन्दर.