अपराध की राह पर हैं लोग मेरे गांव के

इधर कुछ दिनों से अपने गांव आया हुआ हूं। करीब छह साल बाद आया हूं तो सब कुछ बदला-बदला सा लग रहा है। लेकिन सबसे चौंकानेवाली बात यह पता लगी कि लखनऊ से लेकर बलिया तक पूर्वी उत्तर प्रदेश का शायद ही कोई ऐसा गांव होगा जिसके कम से कम दो-तीन नौजवान जेल में न बंद हों। इनमें से किसी पर अपहरण का इल्जाम है, किसी पर हत्या का तो किसी पर राहजनी का। बलात्कार जैसे जघन्य आरोप इन पर नहीं हैं। ये भी चौंकानेवाली बात है कि जेल गए ज्यादातर नौजवान सवर्ण जातियों के हैं। आसानी से पैसा कमाने की चाह ने उन्हें अपराध की राह पर धकेल दिया है।

मेरे गांव के पास के एक रिटायर्ड प्रिसिंपल साहब हैं जो कभी कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा का चुनाव भी लड़ चुके हैं। पहले उनका बेटा अपहरण और हत्या के मामले में रंगेहाथों पकड़ा गया। वह अभी जेल में ही था कि घरवालों ने उसके छोटे भाई को मेरठ में पढ़ाई करने के लिए भेज दिया। कुछ ही दिन बाद उसने एक क्वालिस गाड़ी को ड्राइवर समेत अगवा किया और फिर ड्राइवर को मार कर फेंक दिया। लेकिन बदकिस्मती से घर आते वक्त शक के आधार पर पुलिस ने पकड़ लिया तो वह भी सलाखों के पीछे पहुंच गया।

दो दिन में ही अपने इलाके के ऐसे तमाम किस्से सुनकर मेरा माथा भन्ना गया। समाजशास्त्री होता तो इसकी वजह बता देता। लेकिन नहीं पता, असली वजह या वजहें क्या हैं। सवर्ण लोग इसके लिए जाति-आरक्षण की व्यवस्था को दोषी मानते हैं। उनका कहना है कि पिछड़ी जाति या अनसूचित जाति के नौजवानों को किसी न किसी तरह, कोई न कोई नौकरी मिल जाती है। लेकिन सवर्ण किसान परिवार का युवक बीए, एमए या पीएचडी करने के बाद नौकरी की आस अगोरता रह जाता है। ऊपर से पुरानी ठसक उसे छोटा-मोटा काम करने नहीं देती। ऐसे में उसके पैर आसानी से अपराध की तरफ मुड़ जा रहे हैं।

इस पर मैं गहराई से सोचकर कभी विस्तार से लिखूंगा। अभी तो मेरे दिमाग में बल्ली सिंह चीमा की कविता की लाइनें गूंज रही हैं कि ... अब अंधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गांव के। इस कविता में चीमा ने क्या-क्या बातें कही थी कि कफन बांधे हैं सिरों पर हाथ में तलवार है, ढूंढने निकले हैं दुश्मन लोग मेरे गांव के। मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि वो दुश्मन कहां है और कौन है, जिन्होंने मेरे गांवों की हालत ऐसी बना दी है कि हर तरफ अंधेरा ही अंधेरा और वीरानगी ही नज़र आ रही है।

Comments

Unknown said…
बाबूसाहेब,
गांव जाकर एकदम्मै बाऊसाहेब की तरह सोचने लगे क्या? जरा एक बार अपने टोले से बाहर भी टहल आइए।
Hari Joshi said…
लगता है अनिल यादव जी तो तफरी के मूड में हैं लेकिन हकीकत यही है कि बलिया और मेरठ का हाल एक जैसा है। समाजशास्‍त्री तो मैं भी नहीं हूं लेकिन एक किस्‍सा सुनाता हूं-
एक दिन मेरा एक सहायक शाम को गंभीर मुद्रा में मेरे पास आया और बोला कि मैं आपसे ज्‍यादा मेहनत करता हूं लेकिन आप के पास कार है और मैं मोटर साइकिल भी नहीं खरीद पा रहा हूं। जब तक आप हैं, मैं इससे आगे नहीं बढ़ सकता तो क्‍यों न मैं सबसे पहले आपका ही विकेट गिरा दूं। मैं सन्‍न रह गया और जब तक मैं उबरता तब तक वह सामान्‍य होकर हंस रहा था।
ये घटना एक मजाक भी समझी जा सकती है लेकिन कोई भी अपराध पहले दिमाग में घटित होता है। इससे ये पता चलता है कि आज आदमी में आगे बढ़ने और भौतिक सुख-सुविधा जुटाने की कितनी जल्‍दी है। सबको एक शार्टकट चाहिए और यही युवाओं को जरायम की दुनिया में भी सबसे ज्‍यादा ढकेल रहा है।
हो सकता है, रोजगार की कमी भी एक कारण हो लेकिन सिर्फ रोजगार नहीं चाहिए युवाओं को। रुतबा भी चाहिए उन्‍हें।....और ये ट्रेंड बहुत घातक है।
अनिल जी, सब दूर यही हाल हैं। हमारे नेताओं ने जो बोया वह फल फूल रहा है।
देखना होगा अब क्या बोया जाए?
Anonymous said…
अनिल जी, शायद देश का ही यह हाल है! यही है शायद हमारे नेताओं के सपने का भारत, तभी वह ख़ुद भी इसी तरह की राह पर अगर्सर रहे है और शायद यह उम्मीद भी करते है की आगे बच्चो तुमको ही गद्धी संभालनी है, तो अभी से इन सब चीज की शिक्षा ले लो और तभी शायद राजनीत की हवा जायदा ही गर्म है!
हरिजोशी की बात एकदम सही है। किन्हीं परिस्थितियों में युवाओं की सोच यही है।
अनिल जी, यूपी और बिहार के युवकों को अपनी ठसक छोड़नी पडेगी। उन्हें नौकरी की चक्कर में पड़े रहने की वजाय व्यवसाय की ओर भी ध्यान देना होगा। बिहार और यूपी के लड़कों के पास 50 हजार रूपये आने पर वो अपने कपड़े,बुलेट जैसी दोपहिया वाहन और एक रिवाल्वर खरीदनें के चक्कर में समय गंवाता रहता है। वही किसी गुजराती या पंजाबी या मारवाड़ी युवको के पास 50 हजार रुपये हो तो वो पचास को व्यापार में लगाकर 75 हजार कमाने की योजना बनाता है। हालांकि अपराध हर राज्य मे है लेकिन यूपी बिहार में तो अपराध थोड़ा अधिक हीं है।
pallavi trivedi said…
अपराधी बनने के पीछे एक नहीं बल्कि कई वजहें काम करती हैं...लेकिन आपने जो कारण बताये वे भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं!
sp singh said…
वाह अनिल जी
बहुत दिनों बाद गांव जायेंगे तो एसा ही लगेगा. जो कुछ देखा वही कड़वी हकीकत है. कोई २०-२५ साल पीछे जाकर टटोलेंगे तो वजह साफ-साफ दिख जायेगी. एतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध रहे इस इलाके में यह
तो होना ही था. अति उपजाऊ जमीन में अंधाधुंध खेती, पानी की बहबूदी, आबादी का भारी घनत्व, जिससे
नित छोटी होती जोत. कभी राजनीतिक रूप से संपन्न इस पूर्वी उत्तर प्रदेश में राजनेताओं का लोप. उद्योग-धंधे और कारोबार के नाम पर ठन-ठन गोपाल. जातिवाद के विष वमन और घटिया राजनीति के चलते झन-झन कर टूटता सामाजिक ताना-बाना. यहां लड़ाई सिर्फ अगड़े-पिछड़े की नहीं है, बल्कि गोत्र और भात-टाट तक सिमट गई है. पंचों के फैसले से संचालित गांव सभायें थानों और तहसीलों में सरकारी बाबुओं के रहमो
करम पर निर्भर हैं. पढ़ने-पढ़ाने वाले संस्थान राजनीति के अखाड़े बन गये. बाप-दादाओ के जमाने के स्कूल-कालेज हर तरह से खंडहर बनने लगे हैं. वहां से सिर्फ बेरोजगार युवकों की फौज तैयार हो रही है. गांव की
बैठकें तो रहीं नहीं, लेकिन सड़क के किनारे चाय-पान की दुकानों पर जिनकी चर्चा आदर्श के रुप में होती है,
उनमें इलाके के शार्प शूटर, गुंडा, लंपट, कथित नेता, चोर, कट्टा, बंदूक, बम, पिस्तौल, गोली. इतना ही नहीं,
नशे में भांग, सुर्ती, तमाखू, हुक्का व बीड़ी तो चूतियों को नशा माना जाता है. नारंगी, पन्नी, बड़ी छोड़ी बोतलों
को पौव्वा-अद्धा, मारफिन, हसीस, अफीम और भी बहुत कुछ. सांस्कृतिक तौर पर नाटक, रामलीला, कवि सम्मेलन पिछड़े
होने की निशानी हो गई है. डीटीएच से दुनिया की खबर और बह रही महानगरीय सभ्यता की आंधी में सब
कुछ बहा जा रहा है. बचा सको तो बचाओ भइया......
एसपी सिंह,
उसी धरती से जहां की चर्चा हो रही है.
Satyendra PS said…
बिल्कुल आप सही देखकर आए हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि युवा अपराध की ओर जा रहे हैं। बात बेरोजगारी की कम है। महत्वपूर्ण यह है कि कम समय में ज्यादा पैसा, कम मेहनत में ज्यादा पैसा कमाने की जुगत में रहते हैं युवा। जो अपहरण करते हैं या फिरौती मांगते हैं, गुंडागर्दी करते हैं ऐसा नहीं कि दाने-दाने को मोहताज हैं, लेकिन और जोड़ना चाहते हैं। कितना?? इसकी कोई सीमा नहीं है।
रही बात आरक्षण की। वह तो कहने वाली बात है। जबसे आरक्षण ने रंग दिखाना शुरू किया है, नौकरियां तो निजी कंपनियों के हाथ चली गई हैं। आरक्षण का लाभ तो केवल झुनझुना है, जो पकड़कर कुछ नेता और उनके समर्थक खेल रहे हैं।
कुछ युवक जरूर ऐसे हैं, जो गरीब हैं, वंचित हैं और उन्हें काम करने का मौका नहीं मिल रहा है और गलत राह पकड़ रहे हैं, लेकिन इनकी संख्या नाममात्र है।
वैसे कम समय में पैसा कमाने की प्रबल इच्छा की भारतीय सोच को दिखाने की वजह से इस साल अरविंद की किताब को बुकर पुरस्कार भी मिल गया। इसमें कोई संदेह नहीं कि देश का युवा वर्ग किसी भी तरीके से अधिक से अधिक पैसा बनाना चाहता है। जिसे सरकारी या प्राइवेट नौकरियों में लूट का अवसर मिला तो बढ़िया, नहीं तो जो इस माध्यम से लूट रहे हैं उनको ही लूटकर पैसा बनाने की ललक युवकों में है।
सवाल यह है कि अगर कोई जिलाधिकारी और एसएसपी या एसटीओ आरटीओ बनकर लूट रहा है, जज बनकर लूट रहा है, उसका मुंशी बनकर लूट रहा है, या कंपनियों के अवैध कामों को वैध साबित करने के लिए मोटी रकम ले रहा है, निजी बैंकों की वसूली कराने के एवज में कर्जदारों को पीटकर कंपनी से पैसा बना रहा है तो वैध है और जो युवक डायरेक्ट ऐक्शन में विश्वास करके सीधे लूटमार कर रहे हैं, वे गलत हैं।
सोच तो हर तरफ से बदलने की जरूरत है।
Anonymous said…
माफिया बनने की सनक सवार है इन रंगरूटों को
भाई साहब
नमस्कार
सबसे पहले तो हम आपके इस बारीक प्रेछण से अभिभूत है। गांव जाने के इतने कम समयांतराल में आपने पूरे छेत्र
की नब्ज पकड़ ली। दरअसल इन नवयुवकों के माफिया बनने की सनक सवार है। पढ़ने लिखने में मन नहीं लगता
मां बाप द्वारा डांट पिलाने पर ताना देते हैं कि फलाने इतना पढ़ लिख लिये तो कौन सी तोप मार लिये। ये लोग रटे रटाये फलाने का ही उदाहरण देंगे। इसके अलावा ढमाके जैसे पढ़े लिखे कमाऊ पूतों का जिक्र करना जानबूझ कर भूल जाते हैं। ये सब मैं इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि कईयों को इनमें मैं निजीरूप से जानता हूं।
खर्चे इनके राजा महाराजाओं के हैं। अय्याशी की जिंदगी से कम जीना नहीं चाहते। दूसरों को धन कमाता देखकर इनको भी धन कमाने की ललक होती है पर सही रास्ते और कछुआ रफ्तार से नहीं। इनको चाहिए अपार धन वो भी शाटॆकट तरीकों से। इसको नहीं देखते कि ढमाके २० साल पहले ५०० की नौकरी से शुरूआत की थी तब जाकर आज कही हजारों कमा रहे हैं। छोटे मोटे घरेलू अपराध करके इलाके के दादा बनते हैं। फिर दूसरे इलाकों के आकाओं से मेलजोल बढ़ता है। धीरे-धीरे ये अपराध के कूएं में डूब जाते हैं। माई बाप एक एक पैसा एकत्र कर जमानत लेते लेते हकलान रहते हैं। हालांकि जामनतदार मिल जाते है क्योंकि इनके पिता या तो किसी जमाने के रसूख वाले होते है या लोगों की इनसे सहानुभूति हो जाती है। क्योंकि अगर दबदबे वाले मां बाप नहीं है तो भी उन्होंने सामाजिक प्रतिष्ठा कायम कर रखी होती है। एक बार अपराध के दलदल में जाने के बाद ये चाह कर भी नहीं निकल पाते है। मैने कई एसे तथाकथित माफियाओं से इस बाबत पूछा तो इनका सीधा और सपाट उत्तर था िक अब इस छेत्र में उतर गये है तो इलाके में कोई कांड होगा तो मेरा ही नाम आएगा। पुलिस पहले हमारे यहां ही दबिश देगी। इससे अच्छा है कि इसी फील्ड में ठीकठाक अपना मुकाम बनाया जाय।
आरक्षण के दुष्परिणाम आने की यह तो बस शुरुआत है, देखियेगा क्या क्या होगा इस आरक्षण की वजह से।
राजेश जी की बात एकदम सही है।
Jhangora said…
Bharat mata ki jai.Magar google translator Hindi 2 English aur English 2 Hindi sahi kaam nahi karta.
Asha Joglekar said…
क्या कोई अन्ना हजारे यहाँ पैदा नही हो सकता जो इन युवाओं को सही राह दिखाये उनहें समाज परिवर्तन के काम में लगाये । हरेक को इच्छा होती है कि उसका जीवन सार्थक हो । सार्थकता क्या है और किसमें है यह जानना जरूरी है । अपने ही देस की क्षेत्र की संपत्ती को नष्ट करना कहां की अकलमंदी है । यह परिवर्तन तो घर परिवार और स्कूल से ही हो सकता है ।

Popular posts from this blog

मोदी, भाजपा व संघ को भारत से इतनी दुश्मनी क्यों?

चेला झोली भरके लाना, हो चेला...

घोषणाएं लुभाती हैं, सच रुलाता है