Monday 9 June, 2008

गाय और सूअर खाने से उपजा है खाद्यान्न संकट

दुनिया खाद्य संकट की गिरफ्त में है। अमर्त्य सेन इसकी वजहें गिना चुके हैं। जॉर्ज बुश इसके लिए भारत और चीन की बढ़ती समृद्धि को दोषी ठहरा चुके हैं। लेकिन उन्होंने ये नहीं बताया कि अमेरिका में पैदा होनेवाला 70 फीसदी अनाज गायों और सूअरों को खिला दिया जाता है ताकि अमेरिकी उनका मांस खा सकें। भारत के प्रमुख औद्योगिक समूह काइनेटिक के चेयरमैन अरुण फिरोदिया ने आज इकोनॉमिक्स टाइम्स में छपे अपने लेख में कुछ ऐसे ही तथ्य पेश किए हैं। लेख के चुनिंदा अंश...

दुनिया भर में छाए खाद्यान्न संकट का गुनहगार कौन है? उंगलियां पेट्रोल की जगह इथेनॉल के इस्तेमाल पर उठाई जा रही हैं। कहा जा रहा है कि अमेरिका के किसान मक्के का इस्तेमाल इथेनॉल बनाने में कर रहे हैं जिसके चलते दुनिया भर में खाद्यान्नों की कीमतें बढ़ गई हैं। गंभीर बहस हो रही है कि क्या कृषि भूमि का उपयोग इथेनॉल के उत्पादन के लिए किया जाना चाहिए। ज़ोर देकर कहा जा रहा है कि कृषि भूमि खाद्यान्नों के उत्पादन में काम आनी चाहिए, न कि इथेनॉल के लिए।

अच्छी बात है। लेकिन खाद्यान्न जा किसके पेट में रहे हैं? आपको ये जानकर आश्चर्य होगा कि अमेरिका में पैदा होनेवाला 70 फीसदी अनाज गायों और सूअरों को खिला दिया जाता है ताकि इंसान उनका मांस खा सके। दुर्भाग्य से जानवर अनाज के मांस में सबसे बुरे ‘कनवर्टर’ हैं। एक गाय 16 किलो अनाज खा जाती है तब उसका एक किलो मांस बनता है और इस एक किलो मांस के लिए 10,000 लीटर पानी अलग से खपता है। अनाज का सबसे सक्षम इस्तेमाल तब होता है जब इंसान सीधे उन्हें खाता है। अगर लोग जो अनाज जानवरों को खिलाकर फिर उनका मांस खाते हैं, उसे खुद खाने लगें तो पूरी दुनिया को पेट भर अनाज मिल जाएगा और ‘खाद्य संकट’ कहीं नहीं रहेगा।

एक औसत अमेरिकी साल भर में 125 किलो मांस खा जाता है और सभी अमेरिकी मिलकर साल भर में 3.50 करोड़ टन मांस उदरस्त करते हैं। चीन में तो स्थिति और भी भयंकर है। हालांकि औसत चीनी सब्जियां भी काफी मात्रा में खाता है, लेकिन इसके साथ-साथ वह साल भर 70 किलो मांस भी खाता है। इसमें ज्यादातर सूअर का मांस होता है, लेकिन गाय के मांस की मात्रा भी कम नहीं है। सभी चीनी कुल मिलाकर साल भर में 10 करोड़ टन मांस खा जाते हैं। पिछले 50 सालों में दुनिया में मांस की उपलब्धता पांच गुना बढ़ी है। नतीज़तन ज्यादा से ज्यादा अनाज इंसानों के बजाय जानवरों के पेट में जा रहे हैं। यहां तक कि थाईलैंड जैसे देशों तक में जानवरों को खिलाए जानेवाले अनाज का अनुपात एक फीसदी से बढ़कर 30 फीसदी हो गया है। अब चूंकि अनाज की मांग सप्लाई से ज्यादा रफ्तार से बढ़ रही है, इसलिए अनाजों की कीमत भी चढ़ती जा रही है।

चीन और अमेरिका में लोग अनाज कम और मांस ज्यादा खाते हैं। इसलिए जब तक मांस सस्ता है, उन्हें अनाज के महंगे होने से खास फर्क नहीं पड़ता। चीन में तो सूअर का आरक्षित ‘स्टॉक’ रखा जाता है और बढ़ती कीमतों पर अंकुश रखने के लिए यह स्टॉक बाज़ार में छोड़ा जाता है। सवाल उठता है कि वे जानवरों को अनाज खिलाते ही क्यों हैं? जानवरों को खुले मैदानों में चरने के लिए क्यों नहीं छोड़ दिया जाता? उन्होंने घास और चारा क्यों नहीं खिलाया जाता? आपको बता दें कि मांस के लिए पाले गए पशुओं की संख्या इस समय लगभग 50 अरब है यानी कुल मानव आबादी के आठ गुने से ज्यादा। इतने जानवरों के लिए दुनिया में पर्याप्त चरागाह नहीं है तो मांस उत्पादक उन्हें अपने मुनाफे के लिए अनाज खिलाते जा रहे हैं।

भारत में अभी मांस की प्रति व्यक्ति सालाना खपत महज तीन किलो है। भारतीय गाय घास और चारा खाती है, जबकि सूअर कचरा। लेकिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने यहां बड़े पैमाने पर मांस उत्पादन का धंधा शुरू कर दिया तो वे गायों और सूअरों को अनाज खिलाने लगेंगी। कल्पना कीजिए, अगर अमेरिका की तरह हमारा भी 70 फीसदी खाद्यान्न जानवरों को खिलाने में इस्तेमाल किया जाने लगा तो क्या होगा?
फोटो सौजन्य: db

5 comments:

Gyan Dutt Pandey said...

अमरीकी क्या अन्न आयात कर मांस में परिवर्तित कर रहे हैं या अपना उत्पादित अन्न प्रयोग कर रहे हैं?
बाकी देश अपने अनाज उत्पादन में स्वावलम्बी क्यों नहीं बनते? अन्यथा अपनी आबादी काबू में क्यों नहीं रखते?

Sandeep Singh said...

"कल्पना कीजिए, अगर अमेरिका की तरह हमारा भी 70 फीसदी खाद्यान्न जानवरों को खिलाने में इस्तेमाल किया जाने लगा तो क्या होगा?...."

क्षमा कीजिए सर...मुझे तो लगता है भारतीय किसान इसी दिन का इंतजार तक रहा होगा। अभी तो वो अनाज बेचकर फांसी का फंदा पहन रहा है...शायद तब इतनी कीमत मिल जाए कि उस फंदे में तब उसके बजाए किसी जानवर का सिर आ जाए। (...बस एक कौतूहल)

वैसे सचमुच अरुण फिरौदिया के आंकड़े चौकाने वाले हैं।

Reetesh Gupta said...

अच्छा लगा पढ़कर ...आपका लेख ज्ञानवर्धक और चौंकाने वाला है ...धन्यवाद

Udan Tashtari said...

आंकड़े अचंभित करते हैं. बस खुशी इस बात की कि आपने फिर से लिखना शुरु किया. पुनः आपका और आपकी सशक्त लेखनी स्वागत है. अब नियमित लिखें.

Srijan Shilpi said...

फिरोदिया जी के लेख से तो यह निष्कर्ष निकलता है कि विश्व के खाद्यान्न संकट के लिए मुख्य रूप से मांसाहारी नागरिकों, विशेषकर अमरीका और चीन के लोगों की खान-पान की आदतें जिम्मेवार हैं। लेकिन उनमें खानपान की ये आदतें अचानक तो बदली नहीं है। जबकि खाद्यान्न संकट और अनाज के दामों में बेतहाशा वृद्धि इधर कुछ समय से ज्यादा महसूस की जा रही है।

क्या खाद्यान्न संकट का सम्यक समाधान यह है कि मांसाहारी लोगों को शाकाहार के लिए प्रेरित किया जाए? यदि हां तो इस तरह का बदलाव आने में तो सदियों का वक्त लगेगा।

विडंबना की बात यह है कि भारत सरकार के कुछ मंत्री भी मानते हैं भारत में अनाजों की बढ़ती कीमत की मुख्य वजह यहां के लोगों में खानपान की आदतों में बदलाव आना है।

मेरे ख्याल से, खान-पान की आदतों को कारण मानकर इस समस्या का कोई तात्कालिक समाधान होने वाला नहीं है। जरूरत इस बात की है कि लोगों की खानपान की आदतों को ध्यान में रखते हुए सबके लिए पर्याप्त भोजन और जरूरी पोषक पदार्थों की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए प्रबंधन और प्रशासन के स्तर पर ठोस उपाय किए जाएं। इस काम को बाजार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। अन्यथा जिसके पास भोजन खरीदने लायक आमदनी होगी, वही जीवित रह सकेगा और बाकी लोगों को कुपोषण और भूखमरी का शिकार होना पड़ेगा। इससे दुनिया भर में अपराध, हिंसा, तनाव और बेचैनी बढ़ जाएगी।

खाद्यान्न संकट का समाधान मांग, आपूर्ति और क्रय-शक्ति और कीमत के बाजारवादी फार्मूले से नहीं किया जा सकता। इसका समाधान यह है कि उपलब्ध खाद्यान्न का सभी मनुष्यों के बीच न्यायपूर्ण और कुशल वितरण को सुनिश्चित किया जाए। खासकर उनके लिए विशेष रूप से सोचा जाना चाहिए जो शारीरिक या मानसिक विकलांगता और अक्षमता के कारण जरूरत के मुताबिक अपनी आजीविका कमा सकने की स्थिति में नहीं हैं।