Thursday 31 May, 2007

मनमोहन का कृषि-दर्शन

मनमोहन सिंह को कोई कुछ भला-बुरा कहता है तो अच्छा नहीं लगता। असल में मनमोहन सिंह बहुत कुछ अपने से लगते हैं। एक ईमानदार आदमी, जिसका राजनीतिक छल-छद्म और दिखावे से कोई लेना-देना नहीं। सामान्य मध्य-वर्गीय इंसान, जो संवेदनशील है, गरीबी से उठा है, कूपमंडूक नहीं है, किसी अंध विचारधारा के चंगुल में नहीं फंसा है, पढ़ा-लिखा है, बेहद अनुभवी है। बड़ी उम्मीद थी कि रिजर्व बैंक के गवर्नर से लेकर अंकटाड, आईएमएफ, विश्व बैंक और साउथ कमीशन तक के अनुभव के साथ वो देश की कृषि अर्थव्यवस्था पर एक जनोन्मुखी सोच पेश करेंगे। उम्मीद थी कि नियति ने इस गरीब के होनहार बेटे को जो ऐतिहासिक मौका दिया है, उसका फायदा उठाते हुए ऐसा कार्यक्रम पेश करेंगे जिससे खेती पर निर्भर देश की दो तिहाई आबादी का उद्धार हो सकेगा। लेकिन अफसोस, ऐसा कुछ नहीं हुआ। उन्होंने ऐतिहासिक मौके को बेकार जाने दिया। उम्मीदों पर बर्फ फेर दी। दिखा दिया कि वे महज एक काबिल नौकरशाह हैं, उनके अंदर का राष्ट्रभक्त, संवेदनशील हिंदुस्तानी न जाने कब का दफ्न चुका है। उनसे नया कुछ करने की आस बेमानी है।
बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि मनमोहन सिंह ने इस सोच को पूरी तरह एक छलावा साबित कर दिया है कि अगर पढ़े-लिखे अच्छे लोग राजनीति में आ जाएं तो देश की सूरत बदल सकती है। काबिलियत के आधार पर पी चिदंबरम और मोटेंक सिंह आहलूवालिया भी किसी से कम नहीं हैं। मनमोहन, चिदंबरम और मोटेंक की तिकड़ी से बहुतों को उम्मीद थी कि वो कृषि अर्थव्यवस्था को ठहराव से निकालने की कोई शानदार जुगत निकालेंगे। लेकिन राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में इन तीनों ने भारतीय कृषि के विकास का जो तरीका पेश किया है, उससे यही लगता है कि कृषि इनके लिए 9-10 फीसदी आर्थिक विकास दर को हासिल करने, मुद्रास्फीति को काबू में रखने और बाजार को बढ़ाने का निर्जीव साधन मात्र है। इनकी नजर जमीन और अनाज की उत्पादकता पर जरूर है, लेकिन इनसे जुड़े 60-70 करोड़ इंसान इनकी नजरों से ओझल हैं।
मनमोहन सिंह ने कहा कि हमारी कृषि आज टेक्नोलॉजी की थकान का शिकार हो चुकी है। लघु और सीमांत जोतों के चलते खेती करना आर्थिक रूप से अव्यवहार्य हो गया है। एकदम सही कहा प्रधानमंत्री जी। देश में जोत का आकार घटता जा रहा है। 1970-71 में औसत जोत का आकार 5.75 एकड़ का था, जो 2001-02 में घटकर 3.5 एकड़ का रह गया है। लेकिन मनमोहन सिंह जोतों के इस छोटे आकार की अव्यवहार्यता को कॉरपोरेट और कांट्रैक्ट फार्मिंग के जरिये दूर करना चाहते हैं। वो चाहते हैं कि लघु और सीमांत किसान अपनी जमीनें कॉरपोरेट घरानों या बड़ी-बड़ी कंपनियों को दे दें ताकि वो उसका औद्योगिक इस्तेमाल कर सकें, चाहें तो खेती करें और चाहें तो एसईजेड बना डालें। इसमें किसानों के लिए जोखिम है तो इसका भी उपाय डॉक्टर साहब के पास है। आप खुद ही अंग्रेजी में दिए गए उनके वक्तव्य पर नजर डाल सकते हैं :
"We must also ensure that small landholders and women who work in farms are adequately protected against risks and benefit from all our efforts to improve agricultural performance."
वित्त मंत्री पी चिदंबरम की चिंता तो बस इतनी है कि मुद्रास्फीति को कैसे सहन करने लायक बनाये रखा जाए। इसके लिए वे गेहूं, चावल, दाल और खाद्य तेलों का उत्पादन बढ़ाने के मिशन की बात करते हैं। प्रधानमंत्री ने चार सालों में केंद्र की तरफ से खेती के लिए 25,000 करोड़ रुपये सशर्त देने की बात की तो वित्त मंत्री ने बड़ी ईमानदारी से हिदायत दे डाली कि...
"The additional resources of the Central and the state governments should be spent wisely – without wastage and without corruption – and focus on irrigation, seeds, soil testing, better delivery of fertilizer subsidy, modern markets and last but not the least, agricultural research and extension."
चलिए, चिदंबरम ने भ्रष्टाचार की हकीकत तो स्वीकार की। योजना आयोग के उपाध्यक्ष और इस तिकड़ी के तीसरे सदस्य मोटेंक सिंह ने भी मंत्र की तरह बीज, उर्वरक, कर्ज और उत्पादकता जैसे शब्दों का जाप किया। लेकिन उन्होंने एक मजेदार पहेली भी पेश की। वो ये कि दसवीं पंचवर्षीय योजना में सिंचाई पर किया गया खर्च लक्ष्य से ज्यादा रहा है, लेकिन सिंचित इलाके में लक्ष्य की 50 फीसदी बढ़ोतरी ही हुई और सिचिंत इलाके का वास्तविक क्षेत्रफल बढ़ा ही नहीं। वाकई योजना आयोग इसी तरह नेकी कर दरिया में डालने की योजनाएं चलाता रहा है।
बात बढ़ती जा रही है। इसलिए उसे जल्दी उसे किसी निष्कर्ष पर पहुंचाना जरूरी है। लेकिन पहले कुछ सरकारी आंकड़े। इस साल के बजट में केंद्र सरकार ने कृषि के लिए 8090 करोड़ रुपए का आवंटन किया है, जबकि ग्रामीण विकास पर किया गया आवंटन 29,000 करोड़ रुपए का है।
कृषि पर इतना कम, ग्रामीण विकास पर इतना ज्यादा! सरकार की मंशा समझिए। कृषि का विकास हो या न हो, ग्रामीण विकास हो जाए। ताकि...ताकि बाजार का दायरा गांवों के अमीरों तक पहुंच जाए, उद्योगों का माल आसानी से गांवों तक पहुंच जाए। भारत को इंडिया का उपनिवेश बना दिया जाए। सरकार की इस मंशा को साफ करने के लिए चंद आंकड़े और। केंद्र ने इस साल सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण के लिए 507 करोड़ रुपए रखे हैं, जबकि परिवहन क्षेत्र के लिए उसका बजट है 71,589 करोड़ रुपए का।
जाहिर है कि सरकार को कृषि की 4 फीसदी विकास दर का आंकड़ा चाहिए। मुद्रास्फीति का आंकड़ा 4-4.5 फीसदी तक का चाहिए। इसके लिए वह मिशन चलाएगी, हरित क्रांति जैसी नई टेक्नोलॉजी लाएगी। कॉरपोरेट घरानों से उनके मनमाफिक खेती का औद्योगिकीकरण कराएगी। लेकिन इस प्रक्रिया में किसानों को भागीदार नहीं बनाएगी। उसे यकीन है कि इस देश के किसान औद्योगिकीकरण में शिरकत ही नहीं कर सकते। अरे, ये भूखे-नंगे, अंधविश्वासी लोग क्या कर सकते हैं? याद करें, अंग्रेजों ने हिंदुस्तान में रेलों का जाल तो बिछा दिया था, लेकिन हिंदुस्तानियों की उद्यमशीलता की जड़ों में मट्ठा डाल दिया था। बढ़ने भी दिया था तो सिर्फ अपने जी-हुजूरियों को।
ये सच है कि औद्योगिक या पूंजीवाद का विकास ही कृषि की मुक्ति का रास्ता है। मुक्त और व्यापक आधार वाले पूंजीवाद के विकास से ही भारतीय लोकतंत्र को पुख्ता जमीन मिलेगी। लेकिन मनमोहन सिंह की तिकड़ी तो किसानों को औद्योगिकीकरण के रास्ते से निर्वासित कर रही है। किसानों के बिना कृषि का विकास, इंसानों के बिना सकल घरेलू उत्पाद का विकास। प्रधानमंत्री जी, किस व्योम में आप रहते हैं और किस शून्य में इस देश को धकेल देना चाहते हैं?
पुनश्च : चिदंबरम ने राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में अपने भाषण के शुरू में जवाहरलाल नेहरू की ये पंक्तियां उद्धृत की थीं कि और कुछ इंतजार कर सकता है, लेकिन हमारी कृषि इंतजार नहीं कर सकती। मगर कितनी विडंबना है कि हमारी कृषि पंडित नेहरू के भाषण के बाद साठ सालों से इंतजार ही कर रही है!

Friday 25 May, 2007

एक विलंबित सांस

वह 18 मई का दिन था। मैंने मोहल्ले पर अविनाश जी के एक मार्मिक संस्मरण पर टिप्पणी क्या कर दी, वो ही नहीं उनकी प्रशस्ति करनेवाले भी विचलित हो गए। 19 मई से लेकर आज 24 मई तक बुखार में तप रहा था तो कुछ देख ही नहीं पाया कि कहां क्या चल रहा है, खासकर हिंदी ब्लॉग की सिमटी हुई दुनिया में। अब थोड़ा ठीक हो गया हूं तो सोचा, गलतफहमियों पर सफाई दे दी जाए। मैं साफ कर दूं कि बहस करने का मेरा कोई इरादा नहीं है, न ही मैं अपने प्रतिबद्ध होने या न होने की डुगडुगी बजाने जा रहा हूं क्योंकि मुझे अच्छी तरह पता है कि मै क्या हूं और मुझे खुद से, अपने देश से, समाज से क्या पाना और देना है। इसके लिए मुझे किसी वामपंथी-पोगापंथी बुद्धिजीवी की सीख की दरकार नहीं है।
ये सच है कि मैं अविनाश जी की केवल प्रोफेशनल पहचान से वाकिफ हूं। उनके आगे-पीछे के बारे में ज्यादा नहीं जानता। लेकिन शायद वो भी मेरे बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानते, नहीं तो ऐसा नहीं लिखते कि, 'हम मानें कि हममें इतनी हिम्‍मत नहीं थी कि हम समाज बदलने की लड़ाई लड़ सकें। अगर ये हिम्‍मत होती, तो जो लड़ाई हमें अधूरी लग रही थी, उसे छोड़ कर लड़ाई का ही कोई दूसरा रास्‍ता खोजते। न कि अपने दाल-भात के जुगाड़ में लड़ाई से भाग खड़े होते।'
साथी, मुझ में ही नहीं, अस्सी के दशक में एक सच्चे लोकतांत्रिक भारत के ख्वाब को पूरा करने की लड़ाई के लिए अपना सारा करियर होम कर देनेवाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कम से कम बीस नौजवानों (जिन्हें मैं नाम से जानता हूं) में हिम्मत तो इतनी थी कि उन्हें किसी माओ या चारु मजूमदार के नाम से प्रेरणा लेने की जरूरत नहीं थी। ये गांवों-कस्बों से आम परिवारों से ताल्लुक रखनेवाले वो नौजवान थे जिनको किसी लाल झंड़े का सम्मोहन नहीं था। वो, कांख भी ढंकी रहे और मुट्ठी भी तनी रहे, की दुनियादारी के साथ किसी अखबार के पत्रकार या संपादक बनने की जुगाड़पानी से कोसों दूर थे। लेकिन आज इनमें से इक्का-दुक्का लोग ही पुरानी क्रांतिकारी धारा के साथ जुड़े हुए हैं, वो भी एक विचित्र किस्म की, बड़ी-ही ट्रैजिक मजबूरी में।
हम लोग किसान परिवारों की कचोट लेकर इस आंदोलन में आए थे और इस सोच पर पहुंचे थे कि वर्तमान तंत्र न तो हमारी ख्वाहिशों को पूरा कर सकता है और न ही किसानों को सुंदर भविष्य दे सकता है। हमने बुद्धिजीवी बनकर दुकानें नहीं खोलीं। नक्सलवादी आंदोलन जब भयंकर तंद्रा से गुजर रहा था, तब हमने उसमें नयी ताजगी लाने का जोखिम उठाया। घर-बार छोड़ा। सालों-साल तक मजदूर कॉलोनियों और हरिजन-आदिवासी बस्तियों में रहकर उनके दुख-सुख बांटे, उनमें सुंदर भविष्य का सपना बुना, उन्हें अहसास कराया कि एक दिन ये मुल्क उनका भी होगा।
लेकिन जब चंद क्रांतिकारियों की जमात ने साबित कर दिया कि उनकी दुनिया इतनी संकीर्ण और छोटी है, कि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद उनके लिए कोई वैज्ञानिक दृष्टि नहीं, बल्कि दुकानदारी की मजबूरी के निर्वाह का परचम है, तब हमें भी मजबूरी में निकलकर जिंदा रहने का जुगाड़ करना पड़ा। बड़ी-ही तकलीफदेह यात्रा थी यह। हम किसी विचारधारा के जरखरीद गुलाम नहीं थे कि उससे चिपके रहते और न ही इतने कायर और अपाहिज थे कि भ्रांतियो की पोटली ढोते चले जाते।
हम तो संत कबीर और बुद्ध की प्रेरणा लेकर आंदोलन में उतरे थे और आज भी उस सोच पर कायम हैं। इसलिए नहीं कि हमें अब भी मार्क्सवाद-लेनिनवाद के वैज्ञानिक दर्शन पर भरोसा है, बल्कि इसलिए कि आज भी मेरा ईमानदार मास्टर-किसान बाप खुशी से चहक नहीं सकता, मेरा भाई एमएससी-एजी करने के बावजूद घर पर चारपाई तोड़ रहा है, सत्तासीनों के लिए परेशानी खड़े करनेवाले हमारे गांवों के तमाम बहादुर नौजवानों को पुलिस एनकाउंटर में दिनदहाड़े गोलियों से भून दिया जाता है।
साथी, आपके लिए क्रांति एक बौद्धिक शगल हो सकता है, लेकिन हमारे लिए ये बुनियादी जरूरत है। ये अलग बात है कि शिक्षा और बाहरी दुनिया का जो एक्सपोजर हमें मिला है, उसमें हम बदलाव की लड़ाई का कोई रास्ता नहीं निकाल पा रहे।
अविनाशजी के अजीज भक्त निखिल आनंद गिरी को लगता है कि, 'आप जैसों के साथ समस्या ये है कि आप किसी के सार्थक प्रयासों की सराहना कर सकते हैं, खुद कोई पहल करने की बात ही छोड़िए।' यकीनन, सिस्टम के खिलाफ अकेले कफन बांधकर खड़े रहे होंगे अविनाशजी या उनमें जनवादी या प्रगतिशील होने की प्रशस्ति पाने की चाह होगी, ये सोचना भी बेमानी है। लेकिन अजीज गिरी, आपके पास वो दृष्टि कहां से आ गई कि आपने देख लिया कि मेरा मन कुंठा से भरा हुआ है। ये भी बता दूं कि मैंने न तो अंधेरे में तीर चलाया था और न ही अविनाश पर कोई व्य़क्तिगत निशाना साधा था। मैंने तो अविनाश जैसों की बात की थी।
फिलहाल, साईं इतना दीजिए जामे कुटुंब समाय, मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाए...इस सोच के साथ नौकरी कर रहा हूं। लगातार, इसी पढ़ाई-लिखाई और उधेड़बुन में लगा रहता हूं कि अपने हमवतन किसानों-नौजवानों के लिए इस मुल्क की सूरत को कैसे खूबसूरत बनाया जा सकता है। जिंदगी के ऊर्जा भरे दस-बारह साल स्वाहा करने के बाद इतना समझ चुका हूं कि क्रांति करने के लिए होलटाइमरी करने या खुदकुशी करने में कोई फर्क नहीं है। और, अपने हालात को बदलने के लिए कम से कम जिंदा रहना जरूरी है, इसलिए जिंदा हूं।

Tuesday 15 May, 2007

खैरात या हिस्सेदारी, क्या देंगी बहनजी?

कहा जा रहा है कि मायावती ने उत्तर प्रदेश में दलित-ब्राह्मण-मुस्लिम मतदाता को एक साथ लाकर कांग्रेस जैसा आधार हासिल कर लिया है। लेकिन दोनों में बुनियादी अंतर ये है कि कांग्रेस से लोग रहमोकरम की उम्मीद रखते थे, जबकि मायावती के साथ वो सत्ता में हिस्सेदारी की हसरत से आए हैं। ये उत्तर प्रदेश की राजनीति में पिछले दो दशकों में आया बहुत बड़ा परिवर्तन है।
अब बहन मायावती के सामने सबसे बड़ी चुनौती ये है कि वे दबे-कुचले, असुरक्षित और परेशान लोगों की सत्ता में हिस्सेदारी की हसरत को आगे बढ़ाती हैं या उनके साथ रहमोकरम की राजनीति करती है। सत्ता में हिस्सेदारी का कोई मॉडल अभी तक अपने देश में है नहीं। हां, रहमोकरम की राजनीति में तमिलनाडु के एम करुणानिधि ने एक शानदार मॉडल पेश कर रखा है। जैसे आज ही डीएमके सरकार के एक साल पूरा करने पर करुणानिधि ने इस रहमोकरम का पूरा ब्यौरा अखबारों में छपवाया है। उनके कुछ रहमों पर गौर कीजिए : दो रुपये किलो के भाव चावल, हफ्ते में बच्चों को तीन अंडे, सभी जरूरतमंद परिवारों को मुफ्त कलर टीवी, गरीब लड़कियों को शादी के लिए 15,000 रुपए का अनुदान, गैस कनेक्शन के साथ गैस स्टोव मुफ्त...आदि-इत्यादि।
अवाम को खैरात बांटने की करुणानिधीय राजनीति का ही विस्तार है कि हुजूर की नाराजगी के चलते मंत्री पद से हाथ धोनेवाले दयानिधि मारन ने 3 जून को उनके जन्मदिन के मौके पर सभी मोबाइलधारकों को रोमिंग चार्जेज खत्म करने की खैरात देने का इरादा बना रखा था।
मायावती चाहें तो करुणानिधि की दिखाई इस राह पर चलकर गरीबों को खुश कर सकती हैं। वो चाहें तो उत्तर प्रदेश के औद्योगिक विकास के नाम पर अपनी सरकार को मुलायम-अमर सिंह की तर्ज पर अनिल अंबानी और सुब्रतो रॉय जैसी बिजनेस हस्तियों का एजेंट बना सकती हैं। या, बुद्धदेव भट्टाचार्य की तरह राज्य में टाटा या सलीम ग्रुप के स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन खुलवा सकती हैं। ये अलग बात है कि इस तरह के विकास के नाम पर किसानों से उनकी आजीविका के इकलौते साधन, जमीन को छीन लिया जाएगा और कॉरपोरेट घरानों को हजारों करोड़ की सब्सिडी दी जाएगी।
विकास का एक और तरीका मायावती चाहें तो अपना सकती हैं और वो है अधिक से अधिक लोगों को रोजगार देनेवाला, जन-भागीदारी वाला औद्योगिक विकास। इसके लिए गांव पंचायतों को सक्रिय करना पड़ेगा। सरकारी पैसे की राजनीतिक लूट को रोकना होगा। प्रदेश की विशेषता के आधार पर रोजगार-प्रधान उद्योगों को चुनना होगा। गांधीजी की तर्ज पर लघु और कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देना होगा। लेकिन ये तरीका बहनजी के लिए काफी मुश्किल होगा। बाबासाहब अंबेडकर तक गांधी की इस आर्थिक सोच के खिलाफ रहे हैं। वैसे भी, ग्लोबीकरण के समर्थक बहनजी से पक्की उम्मीद पाले बैठे हैं कि वो विदेशी पूंजी और कॉरपोरेट घरानों का जमकर स्वागत करेंगी, क्योंकि दलितों को आगे बढ़ने के हर उपलब्ध साधन को अपनाना है। दलितों के लिए हिंदी प्रेम या स्वदेशी का कोई मतलब नहीं होता। उन्हें अगर अंग्रेजी आगे बढ़ाएगी तो वे अंग्रेजी ही अपनाएंगे और मल्टी नेशनल कंपनियां इज्जत के साथ अच्छा पैसा देंगी तो देशी कंपनियों के घुटन भरे माहौल में वो क्यों जाएंगे!

जिसकी जितनी संख्या भारी...

मायावती की जीत लोकतंत्र की जीत है। इस राय से इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन इस जीत ने हमारे लंगड़े लोकतंत्र के कुछ ऐसे पहलुओं को उजागर किया है, जिन पर गौर करना और सच्चे लोकतंत्र के लिए उन पर अमल करने का मन बनाना जरूरी है। मैंने आनुपातिक प्रतिनिधित्व की बात इसलिए भी की क्योंकि खुद बीएसपी का नारा रहा है - जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी। जाहिर है कि किसी एक राज्य की सत्ता पर कब्जा करके मायावती चाहकर भी इस नारे पर अमल नहीं कर सकतीं। लेकिन पूरे देश में अभियान चलाकर देश में ऐसा लोकतंत्र लाने की कोशिश जरूर की जा सकती है क्योंकि ये कोई हवाई अवधारणा नहीं है, बल्कि जर्मनी समेत यूरोप के कई देशों में यह व्यवस्था सालोंसाल से लागू है।
जर्मनी की चुनाव व्यवस्था* पर सरसरी नजर डालते हैं। वहां के निचले सदन बुंडेसटाग के चुनावों में मतदाता को दो वोट डालने होते हैं। एक अपने क्षेत्र के व्यक्तिगत उम्मीदवार को और एक अपनी पसंदीदा पार्टी को। इस तरह 328 चुनाव क्षेत्रों में बंटे जर्मनी में सीधे-सीधे 328 उम्मीदवार चुने जाते हैं। मतदाता के दूसरे वोट से तय होता है कि किस पार्टी के साथ कितने फीसदी लोग हैं। पार्टी को मिले मत-प्रतिशत के आधार पर तय होता है कि बुंडेसटाग में उसकी कुल कितनी सीटें होंगी। अगर सीधे चुने हुए उम्मीदवारों की संख्या पार्टी के मत-प्रतिशत से ज्यादा हुई तो सदन में सीटें बढ़ा दी जाती हैं। आमतौर पर जर्मन सदन के आधे 328 सदस्य सीधे चुने जाते हैं, जबकि इतने ही सदस्य पार्टियां खुद को मिले वोट प्रतिशत के आधार पर मनोनीत करती हैं। यहां एक बात गौर करनी जरूरी है कि जर्मनी में मतदान का प्रतिशत बहुत ज्यादा घटने पर भी 75 फीसदी से ऊपर ही रहता आया है।
हम अपने देश में चुनाव की ये सानुपातिक पद्धति अपनाने के बारे में बहस चला सकते हैं। लेकिन इसके साथ शर्त रहेगी कि पहले लोगों के बीच फैली राजनीतिक उदासीनता को तोड़ना होगा। इस सोच को खत्म करना होगा कि हर पार्टी सत्ता में आने पर एक जैसी लूट-खसोट करती है, फिर किसी को वोट देने से क्या फायदा। इसके लिए राजनीतिक पार्टियों के चाल-चरित्र और चेहरे में स्पष्ट विभाजन रेखा खींचनी होगी। दूसरे, लोगों तक इस हकीकत को पहुंचाना होगा कि राजनीति ही निजी और सामाजिक जिंदगी को बदलने का सबसे कारगर माध्यम है।
अगर अपने यहां सानुपातिक प्रतिनिधित्व की चुनाव पद्धति लागू हो गई तो सदन में पार्टियों के सही समर्थन का प्रतिनिधित्व हो सकेगा और पार्टियां उम्मीदवारों को जिताने के लिए जोड़तोड़ करने के बजाय जन-समर्थन बढ़ाने पर जोर देंगी।
* वैधानिक चेतावनी - ये जानकारी सृजन शिल्पी जैसे ज्ञानवान चिट्ठाकारों के लिए नहीं है। पिछली बार शिल्पी जी ने अपनी टिप्पणियों से मुझे इतना डरा दिया था कि मुझे ये वैधानिक चेतावनी लिखनी पड़ रही है।

Monday 14 May, 2007

काहे का बहुजन, कैसा सर्वजन!

बहनजी की हाथी सत्ता संभालते ही गर्द उड़ाने लगी है। वाचाल लोगों ने भी ऐसा गुबार उड़ाया जैसे क्रांति हो गई हो। कहा गया कि मायावती ने पंद्रह सालों बाद पूर्ण बहुमत की सरकार बनाकर कुशल रणनीतिकार होने का प्रमाण दे दिया। लेकिन बहुमत के नाम पर अल्पमत का शासन बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देता है। सोचिए, उत्तर प्रदेश में कुल मतदाता हैं 11.28 करोड़। इनमें से 5.20 करोड़ यानी 46.1% मतदाताओं ने इस बार के चुनाव में वोट डाले। इनमें से बहनजी की पार्टी को मिले 30.28% वोट। यानी, 206 सीटों के साथ उत्तर प्रदेश विधानसभा में बहुमत हासिल करनेवाली बीएसपी के साथ खड़े हैं राज्य के 1.57 करोड़ मतदाता, जो होते हैं राज्य के कुल मतदाता आबादी के महज 13.92%....
आप ही बताइए, करीब 14 फीसदी मतदाताओं को साथ लाकर बहनजी ने कौन-सा राजनीतिक भूचाल खड़ा कर दिया है। किसी समय 85-15 का आंकड़ा देकर बीएसपी कहा करती थी कि वोट हमारा, राज तुम्हारा, नहीं चलेगा-नहीं चलेगा। फिर 15 फीसदी से भी कम मतदाताओं के दम पर बहनजी किसका राज चलाने जा रही हैं? बहुजन का, सर्वजन का या अल्पजन का?
एक बात और है जो लोग बहनजी की इस सापेक्ष जीत को, हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु-महेश है जैसे नारों और सतीश चंद्र मिश्रा जैसे लोगों की सामाजिक इंजीनियरिंग का कमाल बता रहे हैं, वे एक बात भूल जा रहे हैं कि इस बार एक नारा और दिया गया था। वो ये था कि चढ़ गुंडों की छाती पर, मुहर लगेगी हाथी पर। बीएसपी ने हमेशा से तिलक-तराजू जैसे नारों के साथ ही अवाम की लोकतांत्रिक चाहतों को पूरा करनेवाले नारे भी दिए हैं, जिनका असर दलितों से लेकर सभी उपेक्षित तबकों पर पड़ा है।
इसलिए मेरी राय में बहन मायावती की जीत के गुबार में चौंधियाने के बजाय हमें असल बात को पकड़ने की कोशिश करनी चाहिए। 14 फीसदी मतदाताओं के दम पर लोकतंत्र में बहुमत का स्वांग नहीं चलना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि देश में आनुपातिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली लागू की जाए। दूसरे मायावती की ब्रिगेड अभी से जैसे रंगढंग दिखा रही है, उसमें मतदाताओं को पांच साल इंतजार करने के बजाय बीच में ही अपने चुने हुए प्रतिनिधियों को बुलाने का हक मिलना चाहिए। आनुपातिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली की वकालत तो जेपी से लेकर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी तक कर चुके हैं।

बहन जी ने जगा दी उम्मीदें

हरिशंकर तिवारी, केशरीनाथ त्रिपाठी और बेनी प्रसाद वर्मा जैसे दिग्गजों की हार और बसपा को पूर्ण बहुमत। यकीनन उत्तर प्रदेश की राजनीति बदल रही है। ये भी तय है कि बीजेपी और कांग्रेस की वापसी अब उत्तर प्रदेश में कभी संभव नहीं है। राहुल बाबा उत्तर प्रदेश में डेरा जमा लें, तब भी कांग्रेस को सत्ता नहीं दिला सकते। अब तो यहां दो ही दल, सपा और बसपा, बदल-बदल कर पक्ष-विपक्ष में आते रहेंगे।
ये भी तय है कि मायावती से दलित-ब्राह्मण-मुसलमान का जो समीकरण बांधा है, वह लगभग एक अजेय समीकरण है। लेकिन मुलायम सिंह सही-सलामत रहे और उनके ऊपर से अमर सिंह की वक्र दृष्टि हट गई तो पांच साल बाद मायावती को पटखनी दे भी सकते हैं। वैसे, फिलहाल मायावती सही कह रही हैं कि मरे हुए को क्या मारना। सचमुच, मुलायम नब्बे से ज्यादा विधायकों के बावजूद फिलहाल एक मरी हुई शक्ति हैं।
मायावती उत्तर प्रदेश में यकीनन विकास का काम करेंगी। सड़कें बनवाएंगी, पुल बनवाएंगी। इसलिए नहीं कि वो दिली तौर पर विकास की पैरोकार हैं, बल्कि आज की राजनीति में खाने-खिलाने के लिए विकास के पैसों का खर्च होना जरूरी है। मायावती से ये उम्मीद कतई नहीं है कि वो दलितों की किस्मत बदल देंगी। हां, इतना जरूर है कि उनके शासन में दलित भी डीएम और एसपी से लेकर बीडीओ का कॉलर पकड़ सकता है।
मायावती से दलितों के सम्मान को बढ़ाया है, उन्हें एक भावनात्मक संपन्नता दी है। लेकिन जब विधायकों तक को बहन जी के कदमों में बैठना पड़ता है तो उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणवाद के टूटने की उम्मीद नहीं की जा सकती। वैसे भी बसपा के करीब 210 विधायकों में से एक तिहाई विधायक सवर्ण हैं।
फिर भी मायावती के सत्ता में आने से राज्य में लोकतंत्र की चाहत को बल मिलेगा क्योंकि बहन जी से बड़े-बड़े अफसर खौफ खाते हैं और कहते हैं कि किसी सरकारी कर्मचारी को काम न करते हुए देखने पर वो दीवार की तरफ मुंह करके खड़ा होने की सजा दे देती हैं।

Wednesday 9 May, 2007

शानदार भविष्य, फिर भी खुदकुशी!

आज के दौड़ते-भागते भारत में आईआईटी और आईआईएम से बढ़िया और सुरक्षित करियर क्या हो सकता है! फिर भी क्यों यहां के छात्र खुदकुशी कर रहे हैं? कुछ दिन पहले ही एक और आईआईटी छात्र की खुदकुशी की खबर पढ़कर ये सवाल फिर दिमाग में नाचने लगा। मैं सोचने लगा। नए-पुराने अनुभवों को टटोलने लगा। तीन-चार बातें याद आ गईं।
एक तो यह कि जानवर या जानवर की तरह जिंदगी को भोगने वाले इंसान कभी आत्महत्या नहीं करते। जिन्हें जगत-गति नहीं व्यापती, ऐसे मूढ़ भी आत्महत्या नहीं करते। दूसरी बात जो कभी चंदू भाई ने मुझे बताई थी अपने एक बेहद निजी और कटु अनुभव की याद करते हुए कि इंसान जब संघर्ष कर रहा होता है, प्रतिकूलताओं से जूझ रहा होता है, तब नहीं, बल्कि तब खुदकुशी करता है जब वह जीत के करीब होता है, आशा की किरण उसे नजर आने लगती है। उसी तरह जैसे कड़ी मेहनत करते वक्त नहीं, बल्कि थोड़े आराम के बाद आपका पोर-पोर टपकता है। तीसरी बात कि जब जिंदगी के सफर में कोई डेड-एंड आ जाता है, राह तंग गली में खत्म हो जाती है, सारे दरवाजे बंद हो जाते हैं, तब कोई अपनी जान लेने पर उतारू हो जाता है। शायद लाखों के कर्ज में डूबने के बाद या शेयर बाजार के डुबकी लगाने पर इसी वजह से लोग मौत की डुबकी लगा जाते हैं।
चौथी बात कोई भयंकर भावनात्मक चोट इंसान को खुदकुशी तक ले जाती है। प्यार में धोखा, अपने बच्चे या प्यारी बीवी की मौत इसके उदाहरण हैं। लेकिन आईआईटी के छात्रों की आत्महत्या की इसमें से कोई वजह नहीं हो सकती। वजह को समझने के लिए आप खुदकुशी के बारे में लिखी इस कविता को पढ़ सकते हैं। अस्तित्व का तनाव, नीरसता से मुक्ति की चाहत या खुद को विस्तार देने की अदम्य इच्छा या शायद कुछ और...
ये तथ्य है कि ज्यादातर अंतर्मुखी लोग ही अपनी जान लेते हैं। लगता है कोई भी उन्हें नहीं समझता, कोई उनका सगा नहीं है, सभी पराए हैं। पढ़ाई में डूबने पर बाहरी दुनिया अपरिचित होती चली जाती है और उसकी जगह आ जाता है एक यूटोपियन संसार, जहां आदर्श चलते हैं, नैतिकता अपने चरम पर होती है। ऐसे में किसी दिन जब इस यूटोपिया के भुरभुरेपन का अहसास होता है तो ऐसी रिक्तता छा जाती है कि लगता है अब विलुप्त हो जाएं तभी चैन मिलेगा। वैसे, कभी-कभी लोग औरों को अपनी कीमत जताने के लिए भी आत्महत्या करते हैं। सोचते हैं कि अपनी जान देकर दिखा देंगे कि वो कितने कीमती थे क्योंकि उसके न रहने पर ही औरों को उसकी कमी खलेगी। वैसे. ये उनका भ्रम ही होता है क्योंकि लोगों की याददाश्त बड़ी कमजोर होती है और दुनिया में कोई भी अपरिहार्य नहीं होता।