Tuesday 27 January, 2009

निरर्थक है निरर्थकता का बोध

अपने बहुत सारे पुराने साथियों में देखता हूं कि वे अब भी अजीब किस्म के अपराध-बोध और ग्लानि के भाव के साथ जिए जा रहे हैं कि देश-समाज के लिए जो कभी करने की सोची थी, अब कुछ नहीं कर पा रहे हैं। एकाध धरना-प्रदर्शन में हिस्सेदारी, और कुछ नहीं। बस, नौकरी-चाकरी और बीवी-बच्चे। घर से दफ्तर और दफ्तर से घर। कभी-कभी लगता है कि हमारे सपने भी मर रहे हैं, तब हम पाश की लाइनें याद करके दुखी हो जाते हैं कि सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना। अक्सर सोचने लगते हैं कि अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया।

कल की बात सोचता हूं तो मैं भी एक चमकीली उदासी से भर जाता हूं। लेकिन उन अनुभवों को अतीतजीविता के आभासी सुख से मुक्त कर सोचता हूं तो लगता है कि बाहरी और आंतरिक संघर्ष वहां भी था, यहां भी है। तब भी था और आज भी है। यह भी लगता है कि हमारी-आपकी ज़िंदगी ही असली और मूर्त है। देश तो महज एक अमूर्तन है। कहीं वह माता बन जाता है तो कहीं पिता। मुश्किल यह है कि यह अमूर्तन हर किसी को हमारी भावनाओं के दोहन का भरपूर मौका दे देता है। कोई हमें तकरीर के तीरों से बेधता है तो कोई भावनात्मक ब्लैकमेल करता है।

मुझे लगता है कि पहले हमें साफ-साफ समझ लेना चाहिए कि हमें बदलना क्या है। आप कहेंगे कि सरकार को बदलना है। तो, हर पांच साल पर सत्ता के खिलाफ वोट दे दीजिए। आप कहेंगे कि केवल सरकार बदलना पर्याप्त नहीं है। 1977 के बाद तो लगातार यही हो रहा है। नई सरकार भी या तो पुरानी जैसी निकलती है या उससे भी बदतर। इसलिए तंत्र को भी बदलना है। तो, असली सवाल यह है कि तंत्र को कैसे बदला जाएगा? लेकिन इससे भी अहम सवाल है कि इस तंत्र की जगह कौन-सा तंत्र लाना चाहते हैं हम? क्या इसकी तस्वीर हमारे जेहन में साफ है? नहीं है तो पहले इसे साफ करने की जरूरत है।

मुझे लगता है कि इस तस्वीर को साफ करने के लिए हमें किसी किताब या विचारधारा के शरणागत होने की ज़रूरत नहीं है। बस एक सूत्र होना चाहिए कि सामूहिकता के जो भी साधन हैं उन्हें व्यक्ति के प्रति जवाबदेह होना पड़ेगा। गांव के प्रधान, ब्लॉक के प्रमुख और जिलाधिकारी तक की जवाबदेही तय होनी चाहिए। हम जिस सोसायटी में रहते हैं उसके सचिव व अध्यक्ष की कमान हमारे साथ में रहनी चाहिए। सोचता हूं कि जिस सोसायटी में रहता हूं उसमें दखल तो छोड़िए, उसके कामों से मुंह चुराता हूं तो देश-समाज के लिए कुर्बान हो जाने का जज्बा क्या सचमुच सच्चा था? क्या वह व्यावहारिकता से दूर एक खोखला आदर्शवाद नहीं था?

एक समय निरर्थकता का बोध मुझ पर भी इतना हावी हुआ था कि लगा कि इस तरह जीने से तो अच्छा है मर जाना। लेकिन अब लगता है कि असली वीरता यह है कि हम संघर्षों को दरी के नीचे खैनी की तरह दबा देने के बजाय उन्हें शांत मन से सुलझाएं, चाहे वे संघर्ष घर के हों, दफ्तर के हों या सभा-सोसायटी के हों। खुद ही पैमाने बनाकर, नैतिकता के मानदंड बनाकर उनके सामने खुद को बौना या निरथर्क समझने की कोई ज़रूरत नहीं है। असल में हर नैतिकता के पीछे एक अंधापन होता है, आंख मूंदकर उसे सही मानने की बात होती है। यह सच है कि नैतिकता को एक सिरे से नकार कर हम पूरी मानव सभ्यता को नकार देंगे, इंसान के सामूहिक वजूद को नकार देंगे, बर्बरता ओर जंगलीपन के पैरोकार बन जाएंगे।

लेकिन नैतिकता भी काल-सापेक्ष होती है। स्थिर हो गई नैतिकता यथास्थिति की चेरी बन जाती है, सत्ताधिकारियों का वाजिब तर्क बन जाती है। जड़ हो गई नैतिकता मोहग्रस्तता बन जाती है जिसे तोड़ने के लिए कृष्ण को गांडीवधारी अर्जुन को गीता का संदेश देना पड़ता है। मेरा मानना है कि हर किस्म की ग्लानि, अपराधबोध, मोहग्रस्तता हमें कमजोर करती है। द्रोणाचार्य एक झूठ में फंसकर, पुत्र-मोह के पाश में बंधकर अश्वथामा का शोक करने न बैठ होते तो पांडव उनका सिर धड़ से अलग नहीं कर पाते। हम जैसे हैं, जहां हैं, अगर सच्चे हैं तो अच्छे हैं।

हमें न तो अपने से छल करना चाहिए और न अपनों से। इसके बाद हम रोजमर्रा के संघर्षों से लोहा लेते रहें तो समझिए हम अपना काम कर रहे हैं। कभी भी किसी अफसोस या निरथर्कता बोध की ज़रूरत नहीं है। कभी भी हमें ऐसे लकीर नहीं बना लेनी चाहिए जिसके सामने हम खुद को बहुत-बहुत छोटा महसूस करने लगें क्योंकि यह भाव हमारे अंग-प्रत्यंग को शिथिल कर देता है। यह निष्क्रियता की सोच है और साथियों, हम न तो कल निष्क्रिय थे और न आज रहेंगे। हम सक्रिय थे और मरते दम तक सक्रिय ही रहेंगे। आमीन!!!
फोटो साभार: cobalt123

Saturday 24 January, 2009

दशानन के चेहरे चिढ़ते बहुत हैं

रावण की लंका सोने की थी। बहुत सारा निवेश आया होगा तभी तो बनी होगी सोने की लंका। उसके हित-मित्र, चाटुकार बड़े मायावी थे। स्वर्ण-मृग बनकर अपने यार के लिए वनवासियों की बीवियों को रिझाकर छल से उठा लिया करते थे। दशानन चिढ़ता बहुत था। निंदा तो छोड़िए, अपनी जरा-सा आलोचना भी बरदाश्त नहीं कर पाता था। इसी बात पर अपने भाई विभीषण को निकाल फेंका। पौराणिक आख्यान गवाह हैं कि रावण का सर्वनाश हो गया। विभीषण को लंका का राजपाट मिला। लंका सोने की ही रही। लेकिन उस सोने पर राजा का ही नहीं, प्रजा का भी हक हो गया। लंका में रामराज्य आ गया।

एडोल्फ हिटलर, रहनेवाला ऑस्ट्रिया का। आगे नाथ, न पीछे पगहा। अंदर से बड़ा ही भीरु किस्म का शख्स। अपने अलावा और किसी को कुछ नहीं समझता था। मंच पर ऐसा बमकता था कि लगता था कि धरती और आकाश के बीच उसके अलावा कुछ है ही नहीं। सत्ता लोलुप और शातिर इतना कि पराए मुल्क में जाकर राष्ट्रवाद का नारा दे दिया। यहूदियों को निशाना बनाया। उनके खिलाफ नफरत भड़का कर बाकियों को अपने पीछे लगा लिया। जर्मन लोग उसके दीवाने हो गए। लेकिन जर्मनी के वही लोग आज उससे बेइंतिहा नफरत करते हैं।

वहां किसी को हिटलर कह दो तो वह आपके खिलाफ मानहानि का मुकदमा ठोंक देगा। मुट्ठी भर सिरफिरों को छोड़ दें तो जर्मनी का बच्चा-बच्चा हिटलर से नफरत करता है। अपने इतिहास से हिटलर को मिटाने के लिए अभी साल भर पहले उस नगरपालिका ने पुराने रजिस्टर से हिटलर का नाम काट दिया जिसने इस ऑस्ट्रिया-वासी को जर्मन नागरिकता दी थी। हिटलर का भी सबसे बड़ा दोष यही था कि वह चिढ़ता बहुत था। अपनी किसी भी तरह की आलोचना को बरदाश्त नहीं कर पाता था। इतिहास गवाह है कि एक सुनसान बंकर में उसका मृत शरीर पाया गया।

कहने का मंतव्य यह है कि आलोचना न सह पाना, मामूली बात पर चिढ़ जाना बहुत बड़ा दुर्गुण है। इतना बड़ा कि आपका सत्यानाश तक कर सकता है। अपने यहां राजा जनक को सबसे बड़ा योगी इसीलिए माना गया है कि वे सब कुछ के बीच रहते हुए भी असंपृक्त रहते थे। राग-द्वेष, वैर-प्रीति, यश-अपयश से ऊपर थे। गीता में योगिराज कृष्ण ने स्थितिप्रज्ञता का बखान किया है। तो, अपने पंगेबाज टाइप बंधुओं से मैं विनती करना चाहता हूं कि दशानन के चेहरे मत बनो। यह मत साबित करो कि उसमें और तुम में नाभिनाल संबंध है क्योंकि उसकी नाभि को भेदकर कोई भी राम उसका विनाश कर सकता है। तुम और हम आम नागरिक हैं भाई जो अपने देश, अपनी माटी और अपनी परंपरा से बेपनाह मोहब्बत करते हैं। हम उस मायावी का पाप अपने ऊपर क्यों लें?

आखिर में एक बात और। नाम पंगेबाज रखा है तो उसकी मर्यादा का पालन करो। पंगेबाज नाम का मतलब है कि वह बड़े संयत भाव से, शांत मन से पंगा लेगा। चिढ़ेगा नहीं। अरे, मेरी बात का जवाब देना ही था तो आलोक नंदन की तरह देते। चिढ़ जाने से बुद्धि और विवेक का नाश हो जाता है। बंधुवर, मर्यादा पुरुषोत्तम राम की परंपरा को अपनाओ। दशानन का दसवां चेहरा मत बनो।

Thursday 22 January, 2009

नरेन्द्र भाई का एक सद्गुण

संजय भाई ने नरेन्द्र मोदी के दस अवगुण गिनाये तो मुझे लगा कि क्यों न उनका एक सद्गुण गिना दिया जाए। आज ही इंडियन एक्सप्रेस में एक रिपोर्ट छपी है जो बताती है कि वे झूठ बोलने में ज़बरदस्त महारत रखते हैं। उनके सत्य की कलई ख़ुद उन्हीं के सरकारी विभाग ने खोली है। आप भी यह रिपोर्ट पढ़ें और उनके इस सद्गुण की दाद दें। शुक्रिया।

देखो, टूट रही हैं राष्ट्रवाद की सरहदें

बराक ओबामा को अमेरिका का 44वां राष्ट्रपति बनते दुनिया के करोड़ों लोगों ने टीवी पर लाइव देखा। मैंने भी सपरिवार देखा। शायद आपने भी देखा होगा। मेरी पत्नी ने इस समारोह को देखने के बाद सहज भाव से पूछा – क्या मार्केटिंग और नेटवर्किंग के इस युग में ओबामा जैसे साधारण आदमी के रूप में पूरी दुनिया में नई आशा और उम्मीद का पैदा होना चमत्कार नहीं है? यह एक भावना है जो युद्ध और आर्थिक मंदी के संत्रास से घिरे अमेरिका के लोगों में नहीं, सारी दुनिया के लोगों में लहर मार रही है। बराक जब चुने गए थे, तभी हमारे देश में भी पूछा जाने लगा था कि अपने यहां कोई बराक ओबामा नहीं हो सकता। बहुतों के भीतर अपने देश में किसी बराक ओबामा के न होने की कचोट सालने लगी। ओबामा का कहा हुआ वाक्य – yes we can, सबकी जुबान और मानस पर चढ़ गया। इसी माहौल में कुछ मीडिया पंडितों और कॉरपोरेट हस्तियों ने राहुल गांधी से लेकर नरेंद्र मोदी में भारतीय ओबामा की शिनाख्त शुरू कर दी।

सच यही है कि सारी दुनिया के लोग अंदर ही अंदर बराक को अपना नेता मानने लगे हैं। कहने का मौका मिले तो वे कह भी सकते हैं कि अमेरिका का राष्ट्रपति हमारा राष्ट्रपति है। इसी बात पर मुझे साठ के दशक के आखिरी सालों की सुनी-सुनाई बात याद आ गई, जब देश के लाखों तो नहीं, लेकिन हज़ारों नौजवानों ने नारा दिया था – चीन के चेयरमैन हमारे चेयरमैन। लेकिन सत्तर और अस्सी का दशक आते-आते यह नारा उलाहना और हिकारत का साधन बन गया। हिंदू राष्ट्रवाद के चोंगे में सतरंगी राष्ट्र की कंबल परेड करनेवाले स्वयं-सेवक जवाब मांगने लगे – चाओ माओ कहते तो भारत में क्यों रहते हो। लेकिन वही लोग आज ओबामा को अपना नेता माननेवालों से हिकारत की इस जुबान में बात नहीं कर सकते।

उस समय के दौर के बारे में मैं अपने अनुभव से यही कहना चाहता हूं कि चीन के चेयरमैन को अपना चेयरमैन कहनेवाले अपनी मातृभूमि से बेइंतिहा प्यार करते थे। वे अपनी मातृभूमि की मुक्ति का स्वप्न देखनेवाले समर्पित नौजवान थे। इंजीनियरिंग संस्थानों से लेकर विश्वविद्यालयों के मेधावी छात्र थे। वे गीत गाते थे – हे मातृभूमि, तुम्हारी मुक्ति का दिन अब दूर नहीं है। देखो, पूर्व के समुद्र के पार लाल सूरज उग रहा है। उसकी लाल आभा में, लाल आलोक में सारा जग जगमग हो रहा है। वे गीत गाते थे – तोहार बाड़ी सोने के बाड़ी, तोहार बाड़ी रुपे के बाड़ी, हमार बाड़ी हे हो नक्सलबाड़ी। जी हां, मैं नक्सलबाड़ी के संघर्ष से उठे मुक्तिकामी योद्धाओं की बात कर रहा हूं, बलिदानी नौजवानों की बात कर रहा हूं। ये सच है कि उन्होंने भारतीय परिस्थितियों की विशिष्टता को नहीं समझा। लेकिन उनकी भावना पर शक करना, उन्हें चीन का दलाल बताना, उनकी देशभक्ति पर सवाल उठाना गौ-हत्या या ब्रह्म-हत्या से भी बड़ा पाप है।

मुझे तो ऐसा ही लगता है। आप कुछ भी मानने-सोचने के लिए आज़ाद हैं। इतिहास के पहिए को वापस नहीं मोड़ा जा सकता। लेकिन आज वे हज़ारों नौजवान होते तो हज़ारों के हज़ारों भारत का ओबामा बनने की संभावना लिए होते। वैसे, दिक्कत यह है कि परछाइयों के पीछे भागने के आदी हो गए हैं। किसी बाहरी उद्धारक या अवतार की बाट जोहने में लगे रहते हैं। यह नहीं देखते कि एक साधारण-सा शिक्षक ओबामा कैसे बन जाता है। ओबामा को राष्ट्रपति बनने पर हम मुदित हैं। लेकिन यह नहीं समझते कि डेमोक्रेटिक पार्टी का तंत्र नहीं होता तो ओबामा को इतना उभार नहीं मिलता।

क्या अपने यहां कोई भी ऐसी पार्टी है जिसमें ओबामा जैसे आम आदमी को उभारनेवाला आंतरिक लोकतंत्र है? कांग्रेस की तो बात ही छोड़ दीजिए, बीजेपी में किसी नए नेता की तारीफ होते ही प्रधानमंत्री की कुर्सी के दावेदार बुजुर्ग घबरा जाते हैं। सीपीएम तक गुजरात के विकास कार्यक्रमों को समझने की कोशिश में लगे नेता को निकाल बाहर करती है। नैतिकता की अलंबरदार पार्टी के नेता और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके नेता अपनी प्रिया और प्रिय पुत्र के लिए धृतराष्ट्र बन जाते हैं, मातृघात कर डालते हैं। हमारी पार्टियों में आतरिक लोकतंत्र का अभाव है तो ओबामा की तलाश में लगे हमारे कॉरपोरेट जगत में कॉरपोरेट गवर्नेंस का। कंपनियों के प्रबंधन में न तो कर्मचारियों और न ही बाहरी स्वतंत्र निदेशकों की आवाज़ सुनने की व्यवस्था है। अभी तो एक सत्यम का खुलासा हुआ है, न जाने कितनों का सत्य अभी सामने आना बाकी है। राजनीतिक पार्टियों के खातों का स्वतंत्र ऑडिट हो जाए तो लेफ्ट के अलावा सारी की सारी पार्टियां सत्यम की अम्मा निकलेंगी।

ऐसे में मेरा बस इतना कहना है कि राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र की स्थापना के बगैर भारत में कोई ओबामा नहीं उभर सकता। हमारे यहां आज भी ओबामा की कमी नहीं है। लेकिन एक सच्ची लोकतांत्रिक पार्टी के विकास के बिना ऐसे ओबामा अपनी-अपनी चौहद्दियों में चीखते-चिल्लाते, बाल नोंचते, पैर पटकते मिट जाने को अभिशप्त हैं। अच्छी बात यह है कि यह बात अब महज बात नहीं रही है। कहीं-कहीं, धीरे-धीरे एक सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है। देखो, रंग बदल रहा है आसमान का..
फोटो साभार: tsevis