Sunday 28 September, 2008

जन्मदिन एक है तो क्या भगत सिंह बन जाओगे?

सरकार को भले ही न पता हो कि शहीद-ए-आज़म भगत सिंह का जन्मदिन 27 सितंबर है या 28 सितंबर, लेकिन मेरे बाबूजी को यकीन है 28 सितंबर ही भगत सिंह का असली जन्मदिन है। मुझे इसका पता तब चला जब वे सालों तक बार-बार मुझे यही उलाहना देते रहे कि जन्मदिन एक है तो क्या भगत सिंह बन जाओगे। जी हां, संयोग से मेरा भी जन्म आज के दिन यानी 28 सितंबर को हुआ था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बीएससी करने के दौरान देश-दुनिया की हवा लगी तो मन में धुन सवार हो गई कि कुछ ऐसा करना है जिससे पर्वत-सी बढ़ गई पीर पिघल सके। संगी-साथियों ने ज्ञान कराया कि गोरे अंग्रेज़ चले गए, मगर उनकी जगह आ गए हैं काले अंग्रेज़। भगत सिंह का सपना अब भी अधूरा है। फिर तो इरादा कर लिया कि सिस्टम का पुरजा नहीं बनना है, कुछ अलग करना है।

अम्मा को बताया, समझाया। अम्मा मान गईं। लेकिन जो बाबूजी हमेशा कहावत सुनाते थे कि लीक-लीक कायर चलैं, लीकहि चलैं कपूत, अव, लीक छोड़ि तीनों चलैं शायर सिंह सपूत... जो बाबूजी मुझे ऐसा ही सपूत बनाना चाहते थे, वही बाबूजी मेरे इरादों का पता चलते ही भड़क गए। बोले तो करना क्या है? मैंने कहा – फकीरी कर लूंगा। बोले तो घर-परिवार कैसे चलाओगे? मैंने कहा, जब मैं सबके लिए काम करूंगा तो सभी मुझे अपना लेंगे, मैं सबके परिवार का हिस्सा बन जाऊंगा। मैंने भगत सिंह का किस्सा सुनाया, उनकी बातें बताईं तो बाबूजी ने कहा कि वो तब की बात थी। आज देश आज़ाद हो चुका है और भगत सिंह बनने की कोई ज़रूरत नहीं है। बाबूजी तब ऐसा बोल रहे थे जब आम घरों की तरह मेरे भी घर की दीवार पर भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद और सुभाषचंद्र बोस जैसे राष्ट्रभक्तों की तस्वीरों वाला कैलेंडर लटका रहता था।

मुझे समझ में आ गया कि बाबूजी भी उसी आम भारतीय सोच के वाहक हैं जिसमें हर कोई चाहता है कि भगत सिंह अगर हों तो उसके घर में नहीं, पड़ोसी के घर में हों। खैर, अरसा बीत चुका है। मुझे नहीं पता कि बाबूजी सही थे या मेरा युवा जुनून। मुझे अफसोस है तो बस इस बात का कि मैं भरसक कोशिश करने के बावजूद भगत सिंह की बताई राह पर जीवन-पर्यंत नहीं चल सका। आठ-दस साल चलने के बाद भ्रमों के जाल से टकरा कर मोहभंग का शिकार हो गया। फकीरी छोड़कर गृहस्थ बन गया।

लेकिन आज भी मन में कसक उठती है और लगता है कि काश! कहीं से ऐसी ज्योति दिख जाती कि डंके की चोट पर कहा जा सकता – यूरेका, यूरेका... यही है हम सबकी मुक्ति का रास्ता, जन-जन की मुक्ति का मार्ग, इसी राह पर चलकर हम शहीदों के सपनों को साकार कर सकते हैं, अपने प्यारे भारतवर्ष को स्वावलंबी और दुनिया का महानतम देश बना सकते हैं। अपने हर जन्मदिन पर मुझे ये बातें परेशान कर देती हैं क्योंकि बरबस मुझे याद आ जाता है कि आज महान शहीद भगत सिंह का भी जन्मदिन है और वे स्वर्ग में कहीं बैठे अधूरे कामों को याद कर रहे होंगे। बाबूजी ने तो अब कुछ कहना बंद कर दिया है। जब से नौकरी पकड़ी है, बीवी-बच्चों को संभाला है, उन्हें लगता है कि ‘बालक’ का दिमाग अब ठिकाने आ गया है। लेकिन उन्हें नहीं पता कि मेरे दिमाग का केमिकल लोचा अभी तक गया नहीं है।

Saturday 27 September, 2008

मियां, तुम होते कौन हो!!!

यह कहानी हमारे जैसे एक आम हिंदुस्तानी की है जो अपनी पहचान को लेकर परेशान है। इतना कि धर्म तक बदल लेता है। कहानी लिखी तो गई थी करीब सवा साल पहले। लेकिन आज हमारे मुखर समाज में जिस तरह का धुव्रीकरण हो रहा है, उसमें धूमिल के शब्दों में कहूं तो जिसकी पूंछ उठाओ, मादा निकलता है, प्यारे-से तेवरों वाला अच्छा-खासा आदमी चौदह सौ सालों की गुलामी की बात करने लगता है, उसका आत्मसम्मान, उसकी ऊर्जा, उसकी राष्ट्रभक्ति उसे उठाकर किसी खेमे में बैठा देती है, तब मुझे बड़ी सांघातिक पीड़ा होती है। इसीलिए आज यह कहानी फिर से पेश कर रहा हूं।

इसे मैने हंस में राजेंद्र यादव नाम के कथाकार-साहित्यकार संपादक के पास भी भेजा था। लेकिन पारखी-जौहरी बड़े लोग हैं, ठेका चलाते हैं तो परवाह ही नहीं की। हां, मैं शारजाह में रहनेवाली पूर्णिमा वर्मन जी का ज़रूर शुक्रिया अदा करना चाहता हूं जिन्होंने बिना किसी जान-पहचान या सिफारिश के मेरी यह कहानी अभिव्यक्ति में छाप दी। आप इसे अभिव्यक्ति की साइट पर पूरा पढ़ सकते हैं। साथ ही अपने ब्लॉग में इसे मैंने सात पोस्टों में लिखा था। उनके लिंक क्रमबद्ध रूप से दे रहा हूं। हर लिंक क्लिक करने पर आपको कहानी के उस अंश में ले जाएगा। हो सकता है, आप में से पुराने बंधुओं ने यह कहानी पढ़ी हो। लेकिन शायद बहुत से नए साथियों ने नहीं। उम्मीद है, यह कहानी आपको सोचने का कुछ मसाला ज़रूर दे जाएगी।

1. मतीन बन गया जतिन
जतिन गांधी का न तो गांधी से कोई ताल्लुक है और न ही गुजरात से। वह तो कोलकाता के मशहूर सितारवादक उस्ताद अली मोहम्मद शेख का सबसे छोटा बेटा मतीन मोहम्मद शेख है। अभी कुछ ही दिनों पहले उसने अपना धर्म बदला है। फिर नाम तो बदलना ही था। ये सारा कुछ उसने किसी के कहने पर नहीं, बल्कि अपनी मर्ज़ी से किया है। नाम जतिन रख लिया। उपनाम की समस्या थी तो उसे इंदिरा नेहरू और फिरोज खान की शादी का किस्सा याद आया तो गांधी उपनाम रखना काफ़ी मुनासिब लगा। वैसे, इसी दौरान उसे ये चौंकानेवाली बात भी पता लगी कि इंदिरा गांधी के बाबा मोतीलाल नेहरू के पिता मुसलमान थे, जिनका असली नाम ग़ियासुद्दीन गाज़ी था और उन्होंने ब्रिटिश सेना से बचने के लिए अपना नाम गंगाधर रख लिया था।...






Friday 26 September, 2008

हिंदू कट्टरपंथ देश को जोड़ता नहीं, तोड़ता है: लोहिया

बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह का कहना है कि कश्मीर घाटी में जो भी पाकिस्तान का झंडा फहराए, उसे गोली मार दो। सुनने में यह ठकुरई अंदाज़ बड़ा अच्छा लगता है। लेकिन राजनाथ की इस ललकार में अलगाव का ऐसा बीज छिपा है जो अलगाववादियों से कहीं ज्यादा खतरनाक है। प्रसिद्ध विचारक और राजनेता राम मनोहर लोहिया ने जुलाई 1950 में हिंदू धर्म में कट्टरपंथ और उदारपंथ के संघर्ष पर एक लेख लिखा था, जिसे अफलातून भाई ने करीब डेढ़ साल पहले अपने ब्लॉग पर हिंदू बनाम हिंदू शीर्षक से छापा था। हाल ही में उन्होंने इसे अपनी आवाज़ में भी पेश किया है। उसी लेख के संपादित अंश पेश कर रहा हूं।
आमतौर पर माना जाता है कि सहिष्णुता हिन्दुओं का विशेष गुण है। यह गलत है सिवाय इसके कि खुला उत्पात अभी तक उसे पसन्द नहीं रहा। हिन्दू धर्म में कट्टरपंथी हमेशा प्रभुताशाली मत के अलावा अन्य मतों और विश्वासों का दमन करके एकरूपता कायम करने की कोशिश करते रहे हैं लेकिन उन्हें कभी सफलता नहीं मिली। हिन्दू धर्म में सहिष्णुता की बुनियाद यह है कि अलग-अलग बातें भी अपनी जगह पर सही हो सकती हैं। वह मानता है कि अलग-अलग क्षेत्रों और वर्गों में अलग सिद्धान्त और चलन हो सकते हैं और उनकी बीच वह कोई फैसला करने को तैयार नहीं। उसमें सहिष्णुता का गुण इस विश्वास के कारण है कि किसी भी जिंदगी में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, इस विश्वास के कारण कि अलग-अलग बातें गलत ही हों, यह जरूरी नहीं है, बल्कि वे सच्चाई को अलग-अलग ढंग से व्यक्त कर सकती हैं।

कट्टरपंथियों की कोशिशों के पीछे अक्सर शायद स्थायित्व और शक्ति की इच्छा थी। लेकिन उनके कामों के नतीजे हमेशा बहुत बुरे हुए। मैं भारतीय इतिहास का एक भी ऐसा काल नहीं जानता जिसमें कट्टरपंथी हिन्दू धर्म भारत में एकता या खुशहाली ला सका हो। जब भी भारत में एकता या खुशहाली आई, तो हमेशा वर्ण, स्त्री, सम्पत्ति, सहिष्णुता आदि के सम्बन्ध में हिन्दू धर्म में उदारवादियों का प्रभाव अधिक था। हिन्दू धर्म में कट्टरपंथी जोश बढ़ने पर हमेशा देश सामाजिक और राजनीतिक दृष्टियों से टूटा है और भारतीय राष्ट्र में, राज्य और समुदाय के रूप में बिखराव आया है। मैं नहीं कह सकता कि ऐसे सभी काल, जिनमें देश टूट कर छोटे-छोटे राज्यों में बंट गया, कट्टरपंथी प्रभुता के काल थे। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि देश में एकता तभी आई जब हिन्दू दिमाग पर उदार विचारों का प्रभाव था।

आधुनिक इतिहास में देश में एकता लाने की कई बड़ी कोशिशें असफल हुईं। ज्ञानेश्वर का उदार मत शिवाजी और प्रथम बाजीराव के काल में अपनी चोटी पर पहुंचा। लेकिन सफल होने के पहले ही पेशवाओं की कट्टरता में गिर गया। फिर गुरु नानक के उदार मत से शुरू होनेवाला आन्दोलन रणजीत सिंह के समय अपनी चोटी पर पहुंचा, लेकिन जल्द ही सिक्ख सरदारों के कट्टरपंथी झगड़ों में पतित हो गया। इन सब में भारतीय इतिहास के विद्यार्थी के लिए पढ़ने और समझने की बड़ी सामग्री है जैसे धार्मिक सन्तों और देश में एकता लाने की राजनीतिक कोशिशों के बीच कैसा निकट सम्बन्ध है या कि पतन के बीज कहां हैं, बिलकुल शुरू में या बाद की किसी गड़बड़ी में या कि इन समूहों द्वारा अपनी कट्टरपंथी सफलताओं को दुहराने की कोशिशों के पीछे क्या कारण हैं?

केवल उदारता ही देश में एकता ला सकती है। हिन्दुस्तान बहुत बड़ा और पुराना देश है। मनुष्य की इच्छा के अलावा कोई शक्ति इसमें एकता नहीं ला सकती। कट्टरपंथी हिन्दुत्व अपने स्वभाव के कारण ही ऐसी इच्छा नहीं पैदा कर सकता। लेकिन उदार हिन्दुत्व कर सकता है, जैसा पहले कई बार कर चुका है। हिन्दू धर्म संकुचित दृष्टि से, राजनीतिक धर्म, सिद्धान्तों और संगठन का धर्म नहीं है। लेकिन राजनीतिक देश के इतिहास में एकता लाने की बड़ी कोशिशों को इससे प्रेरणा मिली है और उनका यह प्रमुख माध्यम रहा है। हिन्दू धर्म में उदारता और कट्टरता के महान युद्ध को देश की एकता और बिखराव की शक्तियों का संघर्ष भी कहा जा सकता है।

उदार और कट्टरपंथी हिन्दुत्व के महायुद्ध का बाहरी रूप आजकल यह हो गया है कि मुसलमानों के प्रति क्या रुख हो। लेकिन हम एक क्षण के लिए भी यह न भूलें कि यह बाहरी रूप है और बुनियादी झगड़े जो अभी तक हल नहीं हुए, कहीं अधिक निर्णायक हैं। अब तक हिन्दू धर्म के अन्दर कट्टर और उदार एक-दूसरे से जुड़े क्यों रहे और अभी तक उनके बीच कोई साफ और निर्णायक लड़ाई क्यों नहीं हुई, यह एक ऐसा विषय है जिस पर भारतीय इतिहास के विद्यार्थी खोज करें तो बड़ा लाभ हो सकता है।

जब तक हिन्दुओं के दिमाग में वर्णभेद बिल्कुल ही खतम नहीं होते, या स्त्री को बिल्कुल पुरुष के बराबर ही नहीं माना जाता या सम्पत्ति और व्यवस्था के सम्बन्ध को पूरी तरह तोड़ा नहीं जाता, तब तक कट्टरता भारतीय इतिहास में अपना विनाशकारी काम करती रहेगी। अन्य धर्मों की तरह हिन्दू धर्म सिद्धान्तों और बंधे हुए नियमों का धर्म नहीं है बल्कि सामाजिक संगठन का एक ढंग है और यही कारण है कि उदारता और कट्टरता का युद्ध कभी समाप्ति तक नहीं लड़ा गया और ब्राह्मण-बनिया मिलकर सदियों से देश पर अच्छा या बुरा शासन करते आए हैं जिसमें कभी उदारवादी ऊपर रहते हैं कभी कट्टरपंथी।

Wednesday 17 September, 2008

काया में चक्कर काटता क्रिस्टल का बालक

मैं सो गया, मैं पत्ते खेल रहा हूं, मैं दाऊ पीकर बैठा हूं, मैं डांस क्लब जा रहा हूं... तब आप मुझे दोष दीजिए – कई साल पहले नौकरी से निकाले जाते वक्त मानस ने अपने बॉस से यही कहा था। बॉस ने उसकी एक न सुनी। फिर, नौकरी गई तो तब से लेकर अब तक मिली ही नहीं। नौकरी थी तो पिता की आकस्मिक मौत के बाद मां भी साथ रहने आ गई। उन दिनों मानस गुड़गांव दिल्ली के बीच मेहरौली के नजदीक बनी किसी डीएलएफ नाम की सिटी के किसी तीन कमरे के बड़े अपार्टमेंट में रहा करता था। मां आई, उसी बीच मकान-मालिक के ला सलामोस में रह रहे वैज्ञानिक बेटे के निधन की खबर आ गई। बेटे ने यूएस में अच्छी-खासी प्रॉपर्टी बना ली थी तो मकान-मालिक सपरिवार ला सलामोस चले गए। मानस की मां की रोती-बिलखती हालत देखकर बोले – ये अपार्टमेंट अब आपका हो गया। हम तो हमेशा-हमेशा के लिए विदेश जा रहे हैं। आप लोग अपना ख्याल रखिएगा।

उसके बाद तीन कमरों का वो अपार्टमेंट मां-बेटे का घर बन गया। मां 76 साल की, बेटा 46 साल का। मानस की नौकरी 1999 में छूटी थी। मां महीनों-महीनों तक लगातार घर में ही रहती थी। मानस ज़रूर बराबर आसपास के पार्क और बाज़ार में एकाध दिन में चक्कर लगा लिया करता था। लेकिन 11 सितंबर 2001 को अमेरिकी वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद वह भी छठे-छमासे ही घर के बाहर कदम रखता था। दूध-तेल, आटा-चावल, दाल समेत घर का सब सामान होम डिलीवरी हो जाता है। मां को 100 परसेंट यकीन है कि वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला उसी के क्रोध का नतीजा है। असल में मानस को लेहमान ब्रदर्स नाम की जिस कंपनी ने मामूली-सी बात पर नौकरी से निकाला था, उसका हेड क्वार्टर वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में ही था। और, मां लगातार लेहमान ब्रदर्स के सत्यानाश का शाप देती रहती थी।

मां धीरे-धीरे तंत्र साधना टाइप कोई चीज़ करने लगी। मानस को बचपन से ही चमत्कारों में यकीन था तो वह भी मां की साधना में शिरकत करने लग गया। दोनों के गले में रुद्राक्ष की माला और उंगलियों पर कई तरह के नगों की अगूंठियां विराजने लगीं। मां-बेटे का रिश्ता घिसते-घिसते न जाने किस दिन गुरु-चेले का रिश्ता बन गया। घर के दरवाज़ों से रिस-रिस कर निकलनेवाली गंध पर चौबीसों प्रहर हावी रहती थी लोहबान के जलने की गंध। इसी गंध से पड़ोसियों को लगता कि बगल में कोई रहता है। नहीं तो न किसी से लेना, न किसी का देना।

अचानक एक दिन घर से लोहबान की गंध आना बंद हो गई। पड़ोसियों को लगा कि होगा, कहीं चले गए होंगे। लेकिन तीन दिन बाद जब मोर्चरी जैसी गंध आने लगी और लगातार बढ़ती ही रही तो उनसे रहा नहीं गया। उन्होंने घर की घंटी बजाने के साथ ज़ोर-ज़ोर से दरवाज़ा पीट डाला। करीब आधे घंटे के शोरगुल और दरवाजे के बाहर मच गए मजमे के बीच मानस पूरा दरवाज़ा खोलकर एक किनारे खड़ा हो गया। दुर्गंध का भारी भभका बाहर निकला। पड़ोसियों ने देखा, कमरे के बीचों-बीच हवन कुंड के सामने पीछे के सोफे से टिककर बैठी मानस की मां मरी पड़ी थी। पुलिस आई। पोस्टमोर्टम हुआ। मानस ने निगमबोध घाट पर मां का अंतिम संस्कार कर दिया।

घर आया। सारी खिड़कियों खोल दीं। सारे परदे हटा दिए। घर का कोना-कोना घिस-घिस कर धोया। खुद बाहर जाकर खाने-पीने, नहाने-धोने का सारा सामान ले आया। पैसे की कमी नहीं थी क्योंकि पिता ने लाखों बचाए थे। मां के पास भी पर्याप्त स्त्रीधन था। अब सब कुछ उनकी इकलौती संतान मानस का था। दया में मिले तोहफे यानी घर बने अपार्टमेंट की कीमत भी अब करोड़ के ऊपर जा चुकी थी। मानस ने हवन कुंड से लेकर सारी अंट-शंट चीजें नीचे रखी नगरपालिका की बड़ी-सी कचरा पेटी के हवाले कर दी। उसे अचंभा हुआ कि ऐसा करते वक्त उसे तनिक भी डर नहीं लगा।

हफ्ते भर बाद ... यही कोई शाम सात बजे का वक्त था। मानस ने नहा-धोकर अच्छा-खासा नाश्ता किया। ह्वाइट वाइन की बोतल निकाली। मद्धिम वोल्यूम पर सूफी म्यूजिक ऑन कर दिया। वाइन भीतर पहुंचने लगी। मानस का मन खिलने लगा, जैसे ब्रह्म-कमल का फूल धीरे-धीरे खिलता है। आंखें बंद। दिमाग खुला। लगा, जैसे अभी-अभी कोई भयंकर बवंडर शांत हुआ है। हवा में उड़ा गर्द-गुबार नीचे बैठ रहा है। हल्की-सी बारिश हुई और सारा दृश्य कितना साफ हो गया!!! सब कुछ इतना स्वच्छ, इतना पवित्र, जैसे भोर की हरी पत्तियों पर पड़ी ओस की बूंद।

मानस की आंख बंद ही रही। अचानक उसे लगा कि उसके अंदर क्रिस्टल कांच का एक बालक टहल रहा है। नाक-नक्श, हाथ-पैर सब कुछ हज़ारों कोणों पर तराशे हुए। हर कोण से परावर्तित होकर चमकती चमक। बालक का नटखटपना किस्टल की चंचल चमक को और बढ़ा दे रहा था। हां, यह एकदम धवल, निश्छल मानस ही था। मानस के अंदर का मानस, जो चौदह-पंद्रह साल का होते ही कहीं गुम हो गया था। वो अब फिर लौट आया था। मानस को लगा कि उसके होने के पीछे कोई बड़ा मकसद है। जेनेवा में लार्ज हैड्रान कोलाइडर का प्रयोग हो या दुनिया के बड़े-बड़े बैंकों का दिवालिया होना। सब कुछ उसी के लिए हो रहा है। ताकि, वह सब कुछ जानकर सब कुछ को बदलने का सूत्र निकाल सके।

मानस ने वाइन की बोतल पूरी खाली कर दी। जाकर बाथरूम की लाइट जलाकर आईने में अपनी शक्ल देखने की कोशिश की। अरे, यह क्या? एक बूढा होता अधेड़ चेहरा!! मानस से वाइन की गिलास आईने पर दे मारी। आईना बीच से टूट गया। मानस आकर सोफे पर लुढक गया। सपने में मां आई। लेकिन उसके गले में न तो रुद्राक्ष की माला थी, और न ही दसों उंगलियों में नगों से भरी अंगूठियां।
चित्र सौजन्य: DesignFlute

Monday 15 September, 2008

आओ, आतंकवाद-आतंकवाद खेलें!!

अयोध्या में विवादित राम मंदिर से सटे सरयू कुंज मंदिर के महंत युगल किशोर शरण शास्त्री ने मांग की है कि बीजेपी के पूर्व सांसद राम विलास वेदांती को फौरन गिरफ्तार किया जाए। वेदांती विश्व हिंदू परिषद के जानेमाने नेता हैं और बीजेपी ने अगले लोकसभा चुनावों के लिए उन्हें गोंडा से अपना उम्मीदवार घोषित किया है। हुआ यह कि 30 अगस्त को वेदांती ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई कि अलकायदा और सिमी के आतंकवादी उन्हें जान से मारने की धमकी दे रहे हैं। ज़िला प्रशासन ने इस शिकायत को पूरा भाव देते हुए फौरन वेदांती का सुरक्षा घेरा मजबूत कर दिया और उनकी एक्स-श्रेणी की सुरक्षा में और ज्यादा पुलिसकर्मी तैनात कर दिए।

साथ ही पुलिस ने वेदांती का मोबाइल फोन इलेक्ट्रॉनिक सर्विलिएंस पर डाल दिया ताकि उन्हें धमकी देनेवालों की पहचान की जा सके। पुलिस धमकी देनेवाले नंबरों का पता लगने के बाद सकते में आ गई क्योंकि दोनों फोन गोंडा ज़िले के कटरा कस्बे से किए गए थे और इन्हें करनेवाले दोनों ही लोग संघ परिवार से जुड़े संगठनों से ताल्लुक रखते थे। इनमें से एक थे पवन पांडे जो बजरंग दल के नगर अध्यक्ष हैं, जबकि दूसरे सज्जन हैं रमेश तिवारी जो हिंदू युवा वाहिनी के स्थानीय संयोजक हैं।

पुलिस ने इन दोनों को गिरफ्तार कर लिया। ज़िले के एसपी ज्ञानेश्वर तिवारी के मुताबिक पवन पांडे ने पूछताछ में बताया कि, “मेरे गुरुजी (वेदांती) को उस तरह की जेड-श्रेणी की सुरक्षा नहीं मिल रही थी, जिस तरह की सुरक्षा अशोक सिंघल और प्रवीण तोगड़िया जैसे वीएचपी के नेताओं को मिली हुई है। इसलिए गुरुजी के हामी भरने पर हमने इस तरह के फोन किए।” क्या गज़ब का शातिराना दिमाग पाया है इन गुरुजी, यानी राम विलास वेदांती ने। मजे की बात ये है कि इन लोगों की गिरफ्तारी के बाद वेदांती ने एसपी से गुजारिश की कि वे इन दोनों को जानते हैं और इनके खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई न की जाए। एसपी महोदय का कहना है कि इसके बाद उन्होंने इन दोनों को बाइज्जत बरी कर दिया।

अयोध्या में सरयू कुंज मंदिर के महंत युगल किशोर शरण शास्त्री का तो यहां तक कहना है कि वेदांती अयोध्या और आसपास के पूरे इलाके में इस तरह अलकायदा और सिमी की धमकियों का सहारा लेकर सांप्रदायिक तनाव फैलाना चाहते थे ताकि अगले लोकसभा चुनावों में बीजेपी को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का फायदा मिल सके। शास्त्री ने इस मामले के उजागर होने के बाद अपने मंदिर के अहाते में अयोध्या के करीब 500 साधुओं और महंतों की बैठक की। शनिवार को हुई इस बैठक के बाद करीब 100 प्रमुख साधुओं ने एक ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए जिसमें वेदांती को फौरन गिरफ्तार करने की मांग की गई है। उन्होंने अपना यह ज्ञापन जिला प्रशासन के अलावा राज्य की मुख्यमंत्री मायावती को भी भेजा है।

अयोध्या मंदिरों का शहर है। यहां करीब चार हज़ार मंदिर हैं। हर मंदिर में कम से कम पांच-दस साधू और महंत रहते हैं। यहां से साधू अखाड़ों में बंटे हुए हैं। मंदिर की संपत्ति को लेकर उनमें मारकाट चलती रहती है। कभी-कभी तो इस तरह के आरोप भी लगे हैं कि बिहार और उत्तर प्रदेश के तमाम शातिर अपराधी सज़ा से बचने के लिए अयोध्या में आकर साधू बन जाते हैं। लेकिन कुछ भी हो, फैज़ाबाद का होने के नाते मैं जानता हूं कि ये साधू कभी सांप्रदायिक तनाव नहीं चाहते। बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद भी इस इलाके में सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए। शायद इन साधुओं की यही शांतिप्रियता उन्हें विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जैसे बलवाई संगठनों के खिलाफ खड़ा कर देती है।

वैसे, यह बेहद संगीन बात है कि जब पूरा देश सिमी या अलकायदा से जुड़े आतंकवादियों के हमलों को लेकर परेशान है, तब हमारे वेदांती जी आतंकवाद के नाम पर बड़े आराम से अपनी सुरक्षा बढ़ाने का खेल खेल रहे थे। उनके लिए अलकायदा या सिमी एक ऐसा मनगढंत ज़रिया बन गए जिनके दम पर वे अपनी निजी सुरक्षा और राजनीति का आधार तैयार कर सकें। यह तथ्य इस ज़रूरत को भी एक बार फिर सामने लाता है कि आतंकवाद के हौवे से राजनीतिक लाभ बटोरनेवालो लोगों को बेनकाब किया जाए।

इंदिरा गांधी के बारे में कहा जाता था कि अगर किसी वजह से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) खत्म हो गया तो वे आनन-फानन में दूसरा आरएसएस खड़ा कर लेंगी। तो, कहीं ऐसा तो नहीं है कि देश में बढ़ते आतंकवादी हमलों के पीछे इसी तरह की कोई राजनीति काम कर रही है? इतना तो तय है कि बिना राजनीतिक प्रश्रय के कोई आतंकवादी संगठन काम नहीं कर सकता है। सीमापार आतंकवाद तो ठीक है, लेकिन सीमा से भीतर आ जाने के बाद इनको कौन खाद-पानी दे रहा है, इसकी पड़ताल ज़रूरी है। प्रसंगवश बता दूं कि गोंडा से बीजेपी के निष्कासित सांसद ब्रजभूषण शरण सिंह कुख्यात माफिया रहे हैं और उनके यहां एके-47 राइफलों से भरी जीपों का आना-जाना आम बात रही है। ब्रजभूषण अब बीजेपी का दामन छोड़कर अमर सिंह के साये में जा चुके हैं। और, अमर सिंह के बारे में भी कहा जाता है कि दाऊद और अनीस इब्राहिम कास्कर तक उनकी सीधी पहुंच है।

Sunday 14 September, 2008

असली गुनहगारों को बचाने के लिए पोटा ज़रूरी है

गुजरात के बीजेपी नेता हरेन पंड्या की हत्या का केस बंद किया जा चुका है, लेकिन असली कातिल अभी भी कहीं ठहाके लगा रहे हैं तो इसलिए कि पोटा ने कानून के हाथ उनकी गरदन तक पहुंचने ही नहीं दिए। वैसे, अहमदाबाद में पोटा अदालत की जज सोनिया गोकाणी 25 जून 2007 को ही इस मामले में नौ ‘गुनहगारों’ को उम्रकैद, दो को सात साल और एक को पांच साल कैद की सज़ा सुना चुकी हैं। हरेन पंड्या की हत्या तकरीबन साढ़े पांच साल पहले तब कर दी गई थी, जब वे मॉर्निग वॉक के बाद घर लौट रहे थे। हत्या के कुछ घंटे बाद ही मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का बयान आ गया था कि यह हत्या पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई और कराची में बैठे अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहिम ने करवाई है।

गिरफ्तारियां हुईं। पकड़े गए बारह नौजवानों ने पुलिस के सामने अपना गुनाह कबूल भी कर लिया (जिसे पोटा के तहत साक्ष्य माना जाता है) और इन सभी को सज़ा हो गई है। फिर भी मैं कह रहा हूं कि असली कातिल अब भी नहीं पकड़े गए हैं तो इसलिए कि ज़रा-सा भी दिमाग से काम लेनेवाला कोई भी शख्स ऐसा ही कहेगा। क्यों और कैसे? बुधवार 26 मार्च 2003 को हरेन पंड्या का शव उनके घर से करीब दो किलोमीटर दूर लॉ गार्डन इलाके में पार्क की गई मारुति 800 कार में मिला था। पुलिस रिकॉर्ड्स के मुताबिक पंड्या ड्राइवर की सीट पर बैठे थे। कार के पिछले दोनों शीशे बंद थे। अगली सीट पर बाईं तरफ का शीशा करीब-करीब पूरा बंद था, जबकि दाई तरफ का शीशा बमुश्किल तीन इंच खुला हुआ था। सुबह साढे दस बजे का वक्त। सड़क पर पूरी भीड़भाड़। इसी बीच हमलावर मोटरसाइकल पर आए और हरेन पंड्या को मारकर सही-सलामत निकल लिए। अब असली पेंच।

पुलिस कह रही है कि दाईं तरफ के खुले शीशे से हमलावरों ने हरेन पंड्या को गोली मारी। लेकिन पोस्टमोर्टम रिपोर्ट के मुताबिक एक गोली हरेन पंड्या के बाएं अंडकोष से होते हुए दाहिने कंधे से निकल गई थी। बाकी छह गोलियां भी आगे-पीछे या बाईं तरफ से ही मारी गई थीं। ऐसा तभी मुमकिन है जब हरेन पंड्या ने कातिलों की सुविधा के लिए सीट पर सिर नीचे और पैर ऊपर करके आसन लगा लिया हो!!! यह भी जबरदस्त चौंकानेवाली बात है कि सात गोलियां लगने के बावजूद कार की सीट पर खून की एक बूंद भी नहीं गिरी थी।

कोई भी सामान्य आदमी बता देगा कि हरेन पंड्या को कहीं और मारकर उनका शव कार में लाकर रख दिया गया। लेकिन पुलिस कह रही है कि उसके पास एक चश्मदीद है और पकड़े गए सभी बारह आरोपी भी पुलिस हिरासत में महीने भर से ज्यादा रहने के दौरान हत्या की बात कबूल कर चुके हैं। कैसे कबूला, इसका किस्सा भी चमत्कारी है। एक आतंकवादी का बयान जब सीनियर पुलिस अफसर अपने दफ्तर में दर्ज कर रहा था, ठीक उसी वक्त जूनियर अफसर उसी आतंकवादी की मेडिकल जांच सिविल हॉस्पिटल में करवा रहा था। आप कहेंगे, इसमें गलत क्या है? आखिर खतरनाक आतंकवादी एक साथ दो जगहों पर क्यों नहीं हो सकते!!!

मज़ाक की नहीं, बड़ी गंभीर बात है यह। आतंकवादी बेधड़क होकर एक के बाद धमाके करते जा रहे हैं। जयपुर, बैंगलोर और अहमदाबाद के बाद अब दिल्ली। हमारी पुलिस और खुफिया एजेंसियां गिरफ्तारियों के बाद कहती हैं कि धमाके का मास्टरमाइंड उनकी पकड़ में आ गया है। लेकिन मास्टरमाइंड पकड़ा गया तो नए मास्टरमाइंड कहां से पैदा होते जा रहे हैं? यही बात कल दिल्ली धमाकों के सिलसिले में भेजे गए मेल में इंडियन मुजाहिदीन ने भी उठाई है कि, “पुलिस दावा करती है कि उसने सभी मास्टरमाइंड पकड़ लिए हैं तो आज के हमले के पीछे कौन-सा मास्टरमाइंड है।”

बीजेपी के शीर्ष नेता हर आतंकवादी हमले के बाद मांग करते हैं कि आंतकवाद विरोधी कानून, पोटा फिर से लागू किया जाए। लेकिन पोटा के पीछे असल में क्या होता है, यह हरेन पंड्या की हत्या के मामले से साफ हो गया होगा। ब्रिटिश भारत तक में 1855 में ही पुलिस के सामने दिए गए बयानों को अमान्य घोषित कर दिया था। हमारा सुप्रीम कोर्ट भी इसी आधार पर टाडा और पोटा को निरस्त कर चुका है। आंतकवाद से निपटने के दूसरे कठोर कानून हमारे पास हैं। हां, इतना ज़रूर है कि इनमें पोटा की तरह पुलिस के सामने दिए गए बयान को साक्ष्य मानने की सहूलियत नहीं है। अंत में एक छोटा-सा किस्सा। राजधानी से एनकाउंटर के लिए एक शातिर डकैत की अलग-अलग कोणों से छह तस्वीरें संबंधित थाने को भेजी गईं। पांच दिन बाद पूछा गया कि क्या हुआ तो थानेदार का जवाब था – साहब, चार को तो मार गिराया है, बाकी दो को भी जल्दी ही निपटा देंगे।
संदर्भ: दिल्ली के वकील नित्या रामकृष्णन का लेख

Friday 12 September, 2008

यह अछूतोद्धार तो धंधे का फंडा है, नीच!

बड़ी बात है। 34 सालों से न्यूक्लियर तकनीक और धंधे की दुनिया में अछूत बने भारत का उद्धार होनेवाला है। भारत-अमेरिका परमाणु संधि को 45 देशों का न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (एनएसजी) स्वीकार कर चुका है। इसी महीने की 28 तारीख से पहले अमेरिकी संसद भी इस पर मुहर लगा ही देगी। मीडिया से लेकर कॉरपोरेट सेक्टर और यूपीए सरकार में शामिल पार्टियां ताली पीट रही हैं कि भारत का ‘अछूतोद्धार’ अब महज औपचारिकता भर रह गया है। कुछ दिन पहले वॉशिंग्टन पोस्ट ने खुलासा किया कि बुश के मुताबिक, भारत के परमाणु परीक्षण करने की सूरत में अमेरिका यह संधि खत्म कर देगा और परमाणु ईंधन से लेकर परमाणु तकनीक देना बंद कर देगा। सारा देश इस गुप्त पत्र के लीक होने से सन्न रह गया।

विपक्ष कहने लगा कि सरकार और खासकर प्रधानमंत्री ने झूठ बोलकर देश को गुमराह किया है। लेकिन मंत्री से लेकर कांग्रेसी प्रवक्ता और मीडिया के स्थापित स्तंभकार कह रहे हैं कि भारत तो 1998 में दूसरे परमाणु परीक्षण के बाद ही कह चुका है कि वह आगे परमाणु परीक्षण नहीं करेगा। और, बुश के कहने से क्या होता है। वाकई किसी लॉबी का हिस्सा बन जाने के बाद बड़े-ब़ड़े विद्वान कितने बेशर्म हो जाते हैं!!!

इस बीच डील पर अमेरिकी संसद की मुहर लगने से पहले ही डीलर सक्रिय हो गए हैं। वजह है भारत में आनेवाले सालों में परमाणु बिजली से जुड़े 100 अरब डॉलर (4.50 लाख करोड़ रुपए) के संयंत्रों और मशीनरी की मांग। भारत ने साल 2020 तक 40,000 मेगावॉट परमाणु बिजली बनाने का लक्ष्य रखा है। देश में विदेशी कंपनियों के हितरक्षक माने जानेवाले उद्योग संगठन एसोचैम के मुताबिक इसके लिए कम से कम 45 अरब डॉलर (2.02 लाख करोड़ रुपए) का शुरुआती निवेश करना पड़ेगा। इस धंधे को लपकने के लिए अमेरिका, रूस, फ्रांस और ब्रिटेन में अभी से होड़ लग गई है।

कुछ विद्वान तो वॉशिंग्टन पोस्ट के खुलासे के बाद बड़ी होशियारी दिखाते हुए कह रहे हैं कि हमें अमेरिका के बजाय फ्रांस, ब्रिटेन और रूस को तरजीह देनी चाहिए। लेकिन यूएस-इंडिया बिजनेस काउंसिल जैसी परिषदों के दबाव में अमेरिका ने जिस तरह एनएसजी में आयरलैंड, न्यूज़ीलैंड और चीन जैसे देशों को चुप कराया है, उससे नहीं लगता कि वह इतना बड़ा धंधा आसानी से अपने हाथ से निकलने देगा। वैसे, देश-विदेश की 400 से ज्यादा कंपनियों के व्यावसायिक हित परमाणु के इस धंधे से सीधे-सीधे जुड़े हैं। इनमें आनेवाले दिनों में जमकर खींचतान और लॉबीइंग होनी है। अभी तक परमाणु बिजली में निजी क्षेत्र के आने की इजाज़त नहीं है तो सीआईआई और फिक्की जैसे संगठन 1962 के परमाणु ऊर्जा कानून से इस नियम को हटवाने में जुट गए हैं कि 51 फीसदी या इससे ज्यादा सरकारी शेयरधारिता वाली कंपनियों को ही परमाणु बिजली क्षेत्र में उतरने दिया जाएगा।

भारत की यूरेनियम सप्लाई को लेकर भी सुगबुगाहट तेज़ होने लगी है। ऑस्ट्रेलिया ने कह दिया है कि वह एसएसजी से मंजूरी मिलने के बाद भी भारत को यूरेनियम नहीं देगा। नहीं पता कि वह इस मामले में गंभीर है या कोई मोलतोल करना चाहता है। इस बीच यूरेनियम के विश्व बाज़ार में भारत की मांग का ताप महसूस किया जाना शुरू हो गया है। भारत की मौजूदा सालाना मांग 500 टन या 13 लाख पाउंड (1 टन = 2600 पाउंड) की है। शुरुआती सालों में ही इसके 1000 से 1500 टन हो जाने की उम्मीद है। यूरेनियम व्यापारियों के मुताबिक स्पॉट या हाज़िर बाजार में इतनी मांग कीमतों को बढ़ाने के लिए काफी है। वैसे भी लंदन के स्पॉट बाज़ार में पिछले कुछ सालों में यूरेनियम की कीमतों में भारी उतार-चढ़ाव आता रहा है। साल 2000 में इसकी कीमत महज 7 डॉलर प्रति पाउंड थी, जून 2007 तक उछलकर 136 डॉलर प्रति पाउंड हो गई और स्पॉट बाज़ार में इस समय यूरेनियम की कीमत 64.5 डॉलर प्रति पाउंड चल रही है। देखिए, साल भर बाद यह कीमत कहां तक पहुंचती है।
फोटो सौजन्य: dou_ble_you

Thursday 11 September, 2008

सारी सुविधाओं के ऊपर तनख्वाह हुई तीन गुना

राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति और राज्यपाल भारतीय जनता के सबसे बड़े सेवक हैं। यह सेवा करने के लिए उन्हें जो सुविधाएं मिलती हैं, उसमें उन्हें अगर एक धेला भी तनख्वाह न मिले तो उनकी ही नहीं, उनके खानदान की सेहत पर भी कोई असर नहीं पड़नेवाला। लेकिन हमारी सरकार ने इन सबकी तनख्वाह तीन गुनी कर दी है। राष्ट्रपति को पहले महीने के 50,000 रुपए मिलते थे, अब 1.50 लाख रुपए मिलेंगे।

उप-राष्ट्रपति को जहां 40,000 रुपए मिलते थे, अब 1.25 लाख मिलेंगे और राज्यपालों को 36,000 रुपए के बदले महीने के 1.10 लाख रुपए मिलेंगे। आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति ने आज इस फैसले पर अंतिम मुहर लगा दी।

देश और राज्यों के शीर्ष संवैधानिक प्रमुखों को यह बढ़ा हुआ वेतन जनवरी 2007 से मिलेगा। यानी, 20 महीने का लाखों रुपए का एरियर ऊपर से मिलेगा। सरकार इससे पहले छठें वेतन आयोग की सिफारिशों को मानते हुए करीब 65 लाख सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाहें पहले से बढ़ा चुकी है। इसके तहत कैबिनेट सचिव का मूल वेतन 30,000 रुपए से बढ़ाकर 90,000 रुपए किया जा चुका है। बाकी कर्मचारियों की भी तनख्वाहें अच्छी-खासी बढ़ाई गई हैं।

संदर्भवश बता दूं कि सरकार ने लीक तोड़ते हुए इस बार किसी नौकरशाह के बजाय एक सामाजिक कार्यकर्ता शैलेश गांधी को सूचना अधिकार से जुड़ा केंद्रीय पद सौंपा है। वो 18 सितंबर 2008 से केंद्रीय सूचना आयुक्त का पदभार संभाल लेंगे। शैलेश गांधी आईआईटी मुंबई से निकले इंजीनियर हैं। फिर उन्होंने अपनी एक प्लास्टिक कंपनी डाली। लेकिन पिछले कई सालों से सूचना अधिकार की मुहिम छेड़े हुए हैं। नया पद मिलने के बाद शैलेश गांधी ने घोषणा की है कि वे महीने में केवल एक रुपए की सांकेतिक तनख्वाह लेंगे। साथ ही किसी भी सरकारी सुविधा का उपयोग नहीं करेंगे। उनका कहना है कि अपनी मेहनत से उन्होंने इतनी बचत कर ली है कि उन्हें महीने में 60,000 रुपए ब्याज के रूप में मिल जाते हैं जितने में उनके कुटुम्ब का भरण-पोषण हो जाता है।

सवाल उठता है कि एक अदना-सा सामाजिक कार्यकर्ता जब एक रुपए महीने में जनसेवा कर सकता है तो हमारे इतने बड़े ‘जनसेवकों’ की तनख्वाह क्या 300 फीसदी बढ़ानी ज़रूरी थी?

Monday 8 September, 2008

सारी गड़बड़ लोकल है, बाकी सब ठीक है

विदेश गए बबुआ को बाबूजी का खत...
बेटा दपिन्दर, तुमको आदत है घर-परिवार से अलग हटकर देश-समाज की चिंता करने की, इसलिए ये खत लिख रहा हूं। नहीं तो आठ साल से लगातार तुमसे फोन पर बातचीत तो होती रहती है। हर हफ्ते तू ही फोन करके सारा हाल ले लेता है। हमको कहां कुछ करना पड़ता है। तू इधर-उधर की बात सुनकर भागकर आने की हड़बड़ी मत करना, इसलिए सारी बात साफ-साफ बता रहा हूं।

मुझे पता है कि तुझे कोसी की बाढ़ से ज्यादा तकलीफ इस बात से हुई होगी कि बाहुबली सब राहत खा जा रहे हैं। मदद करने गए पुलिस वाले ने ही महिला से बलात्कार किया। इलाके के अधिकारी भ्रष्ट हैं। लेकिन बेटा, ये सारी गड़बड़ लोकल है, बाकी सब ठीक है।

अमरनाथ में मंदिर को ज़मीन दी। घाटी उबल पड़ी। ज़मीन छीन ली। जम्मू सड़कों पर आ गया। चुनाव नजदीक हैं। बलवा हुआ, बवाल हुआ। फायरिंग में बहुत से लोग मारे गए। मामला तप गया तो समझौता हो गया। ये सच है कि अमरनाथ यात्रा में बराबर की मदद करनेवाले हिंदुओ-मुसलमानों में तनाव है, तल्खी है। लेकिन बेटा, ये पूरी गड़बड़ लोकल है, बाकी सब ठीक है।

हरियाणा में मास्टर स्थाई नियुक्ति की मांग कर रहे थे। पुलिस क्या करती। पहले लाठियां चलाईं, फिर गोलियां। एक मास्टरनी मर गई। लोग भड़क गए हैं। लेकिन बेटा, पूरा मामला लोकल है, बाकी सब ठीक है।

आज़मगढ़ में आतंकवाद के खिलाफ रैली करने जा रहे थे अपने गोरखनाथ मंदिर के योगी आदित्यनाथ। अरे, वही आदित्यनाथ जिन्होंने दंगे में मुसलमानों को खींच-खींचकर मरवाया था। रैली के पहले ही उनके काफिले पर हमला हो गया। कई गाड़ियां तोड़फोड़ डाली गई। लेकिन रैली हुई। एक कातिल मुस्कान के साथ आदित्यनाथ बोले। आज उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल बंद है। पर बेटे, फिक्र की बात नहीं। मामला लोकल है, बाकी सब ठीक है।

कंधमाल में पहले स्वामी को माओवादियों ने मार डाला। फिर वीएचपी वालों ने आदिवासियों को मारा पीटा। घरों में आग लगा दी। क्या बुरा किया? हमारी सहनशीलता की भी हद है। हमारे चलते ही ये मु्ट्ठी भर लोग इतना बमकने लगे हैं। हमारा बहुमत और हम्हीं को धौंस। हम्हीं पर हमले। लेकिन बेटा, चिंता मत करना। सब लोकल मामला है, यहां तो सब ठीक है।

तुम्हारी अम्मा के सीने में बड़ा दर्द रहता था। सीढ़ी चढ़ने पर सांस फूलती थी। डॉक्टर को दिखाया। जांचा-परखा। बोला – हार्ट में चार जगह ब्लॉकेज है। बेटा जी, फिक्र मत करना। ब्लॉकेज़ तो हार्ट में ही न है। बाकी अम्मा का हाथ-पैर, दिल-दिमाग सब दुरुस्त हैं। दर्द भी है तो लोकल है। बाकी सब नॉर्मल है। आठ साल से नहीं आए तो अब आने की हड़बड़ी करने की ज़रूरत नहीं है। खुश रहना। बहू को हम सभी का आशीर्वाद पहुंचे। तुम्हारा भेजा पैसा सीधे बैंक खाते में आ गया था। हम सब ठीक हैं। देश-समाज भी ठीकै है। जो थोड़ी-बहुत गड़बड़ी है, सब लोकल है। बाकी सब ठीक है।

Friday 5 September, 2008

तोड़े गए सारे पुल एक दिन लौटकर पुकारेंगे तुम्हें

पुश्किन की किसी कविता का जिक्र कहीं पढ़ा था जिसमें उन्होंने कहा है कि पुराने पुलों को इस कदर तोड़ देना चाहिए कि लौटना चाहो तब भी न लौट सको। फिर ट्रैसी चैपमैन का एक गाना सुना कि जिन-जिन पुलों को तुमने तोड़ा है, वो एक दिन लौटकर आएंगे और तुम्हें कचोटेंगे। चाक-चाक कर देंगे। जब भी मन उदास होता है, यह गाना दिमाग में बजने लगता है। बोल भी पेश हैं और वीडियो भी।

All the bridges that you burn
Come back one day to haunt you
One day you'll find you're walking
Lonely

Baby I
Never meant to hurt you

Sometimes the best intentions
Still don't make things right

But all my ghosts they find me
Like my past they think they own me
In dreams and dark corners they surround me
Till I cry I cry

Let me take this time to set the record straight
Let me take this time to take it all back
Let me take this time to tell you how I felt
Let me take this time to try and make it right

But you can
Walk away
Be all alone
Spend all your time
Thinking about the way things used to be
If love feels right
You work it out
You don't give it up
Baby

Anybody tell you that
Anybody tell you that
Anybody tell you that

You should take some time maybe sleep on it tonight
You should take some time baby heed the words I said
You should take some time think about your life
You should take some time before you throw it all away

I ain't got the time
To sit here and wait around
But I got the time
If you say
I'm what you want

अच्छी-अच्छी बातों को पटरा कर देती है ज़िंदगी

किताबें आलमारी में पड़ी रह जाती हैं। उपन्यास और कहानियों को छोड़ दें तो बाकी किताबों को साल-दो साल बाद ही दोबारा पढ़ने पर लगता है कि अरे, इसमें ऐसी भी बात लिखी गई है! जैन मुनि को सुना। कैसे दया, करुणा, वात्सल्य के बखान के अलावा बता रहे थे कि क्यों दुश्मनों की उपेक्षा की जानी चाहिए। भागवत कथा सुनी। अहंविहीन, निस्वार्थ प्रेम की महत्ता समझी। भक्ति योग और ज्ञान योग का अंतर अच्छी तरह समझा। किसी बापू का प्रवचन सुना, किसी ओझा ने सुनाई रामकथा। अच्छी-अच्छी बातें सुनीं भी, गुनीं भी। नया जीवन-दर्शन समझा। इतना कि कई बार सबके सामने भावुक हो गए। नाचने लग गए। लेकिन असल ज़िंदगी में आते ही सब कुछ हो गया पटरा।

क्यों होता है ऐसा? क्या हम इतने कुपात्र हैं कि अच्छी बातें हमारे अंदर टिक ही नहीं सकतीं? या, यह कि हमने दहेज लिया ही कहां है! वो तो लड़की के पिता ने खुद अपनी लाडली के प्रेम में इतना सारा दे डाला। अब, हम कैसे किसी की भावना को ठुकरा सकते थे? एक अजीब किस्म का दोगलापन हमारे आसपास बिखरा हुआ है। कथनी-करनी में भयानक खाईं। बातें सुनिए तो लगेगा कि इनसे महान कोई हो ही नहीं सकता। लेकिन काम देखिए तो पता चलता है कि इनसे बड़ा धूर्त और मक्कार नहीं हो सकता है। भड़ास मीडिया ने हमारा हीरो नाम की सीरीज चला रखी है। इसमें रामकृपाल से लेकर पुण्य प्रसून वाजपेयी और अजय उपाध्याय जैसे अनेक दिग्गज अपनी व्यथा-कथा सुना चुके हैं। लगता है कितना महान जीवन है इनका और कितने लोकतांत्रिक विचार हैं इनके। लेकिन न्यूजरूम में पहुंचते ही इनका सारा कुछ गाव-गुप्प हो जाता है।

बात सीधी-सी है। हमारी जीवन स्थितियां ही तय करती हैं कि हम किन बातों और विचारों को अपनाएंगे। फ्लोर पर काम कर रहे हैं, सभी में एकता ज़रूरी है तो हम उनके बीच का होने के नाते टीम-वर्क और मानव गरिमा के सम्मान की वकालत करते हैं। लेकिन बॉस की कुर्सी पर पहुंचते ही वहां बने रहने की शर्तें कुछ और हो जाती हैं तो मानव गरिमा और टीम वर्क तेल लेने चला जाता है। बॉस की कुर्सी छूटते ही इंसान फिर अपनी औकात पर आ जाता है और यारी-दोस्ती की कसमें खाने लगता है।

बड़ी-बड़ी बातों से कुछ नहीं होता। हमारा दिमाग कुछ भी कूड़ा-कचरा जमा करके नहीं रखता। या तो फेंक देता है या उन्हें रि-साइकल कर अपने काम का बना लेता है। हमारे धार्मिक साहित्य में भी पात्रता-कुपात्रता की बात की गई है। जीवनयापन और हमारी सामाजिक स्थितियां ही हमारी पात्रता तय करती हैं। तय करती है कि कितनी सूचनाएं और ज्ञान हमारे लिए ज़रूरी है। इसी से निर्धारित होता है कि बर्तन एक लीटर का होगा या पचास-सौ लीटर का। हां, हम अपनी आंखें औरों के सपने से जोड़कर बर्तन की गहराई और चौड़ाई बढ़ा भी सकते हैं। लेकिन टिकेगा उतना ही, जितना ज़िंदगी तय करेगी। बाकी सारा ओवरफ्लो कर जाएगा। उन लोगों के पास तो कुछ भी नहीं टिकता जिनकी जीवन स्थितियां ही अवसरवाद की देन हैं। तली में छेद हो तो ऊपर से कितना भी डालो, निकलता ही जाएगा। ऐसे लोग नामवर आलोचक तो बन सकते हैं, कुछ रच नहीं सकते।

बात इतनी भर नहीं है कि ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है, इच्छा क्यों पूरी हो मन की। बल्कि, समाज की उत्पादन प्रक्रिया में, रचनाशीलता के कर्म में आपकी यथास्थिति क्या बनती है, मान-सम्मान ओहदा बनाए रखने के लिए ज़रूरी क्या है, इसी से तय होते हैं आपके जीवन के व्यावहारिक विचार। बाकी सब सैद्धांतिक लफ्फाज़ी है, स्वांग है जो दूसरों पर असरकारी हो सकता है, अपनों पर नहीं। इसीलिए मियां जब बैठकखाने में किसी के सामने ज्ञान ठेलने की हद कर देते हैं तो बीवी अंदर से आकर बोल ही देती है – चलो अब बंद करो। बहुत हुआ। और भी कुछ करना-धरना है कि नहीं।
तस्वीर साभार: Lady-Bug

Thursday 4 September, 2008

लिया दोनों हाथ से, देना हुआ तो बोल दिया टाटा!

अगर टाटा नानो कार की फैक्टरी सिंगूर से हटाकर कहीं और ले गए तो पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की राजनीति पर ताला लग सकता है। वैसे कल 5 सितंबर को राजभवन में राज्यपाल गोपालकृष्ण गांधी की सदारत में राज्य सरकार के प्रतिनिधियों, टाटा समूह और ममता बनर्जी की एक बैठक होने जा रही है और खुद ममता बनर्जी ने उम्मीद जताई है कि मामले का कोई न कोई हल निकल आएगा। इस बीच एक ताज़ा सर्वेक्षण के मुताबिक पश्चिम बंगाल के 85 फीसदी लोग इस परियोजना के पक्ष में हैं। लेकिन इसमें से 50 फीसदी लोग मानते हैं कि अधिग्रहण की गई कृषि भूमि की उर्वरता को देखते हुए किसानों को ज्यादा आकर्षक मुआवज़ा दिया जाना चाहिए। उद्योग संगठन एसोचैम की तरफ से कराए इस सर्वेक्षण में पश्चिम बंगाल के 12 ज़िलों में करीब 2000 लोगों से बात की गई।

साफ है कि पश्चिम बंगाल का भद्रलोक इस परियोजना के पक्ष में है। लेकिन साथ ही वो चाहता है कि प्रभावित किसानों को वाज़िब मुआवज़ा मिले। वाममोर्चा सरकार का दावा है कि वह सिंगूर के किसानों को बाज़ार कीमत का तीन गुना मुआवज़ा दे चुकी है। लेकिन वह यह नहीं बताती कि जिस भूमि को उसने एक-फसली करार दिया है, वो असल में बहु-फसली कृषि भूमि रही है। भूमि को बहु-फसली मानते ही उसकी कीमत कई गुना हो जाती। वाम सरकार का एक और झूठ बेपरदा हो चुका है। उसने दावा किया था कि नानो परियोजना के लिए ली गई 997.11 एकड़ के लिए 96 फीसदी किसानों ने रज़ामंदी दिखाई है। लेकिन अदालत के सामने उसे मानना पड़ा कि केवल 287.5 एकड़ भूमि के मालिक किसानों ने ही अपनी हामी भरी है। यानी, नानो परियोजना की 71 फीसदी ज़मीन जबरिया अधिग्रहीत की गई है।

अब पश्चिम बंगाल के उद्योग मंत्री निरूपम सेन बता रहे हैं कि सिंगूर की परियोजना के लिए ली गई ज़मीन में से 690.79 एकड़ के मालिक करीब 11,000 किसानों ने अपना मुआवज़ा ले लिया है। बाकी लगभग 300 एकड़ भूमि के मालिकों ने अभी तक मुआवज़ा नहीं लिया है। इन ‘अनिच्छुक’ किसानों की संख्या 1100 के आसपास है। तृणमूल नेता ममता बनर्जी इस भूमि को 400 एकड़ बताती हैं और मांग कर रही हैं कि यह भूमि अनिच्छुक किसानों को लौटा दी जाए। इस मांग के खिलाफ एक तर्क तो यह है कि महज 10 फीसदी किसानों के लिए 90 फीसदी किसानों की आशाओं पर पानी फेरना कतई लोकतांत्रिक रवैया नहीं है। दूसरे, कानूनन एक बार अधिग्रहीत कर ली गई ज़मीन किसानों को वापस नहीं लौटाई जा सकती। फिर विवादित भूमि जहां-तहां बिखरी हुई है और इसे किसानों को लौटाने का मतलब होगा पूरी परियोजना को खत्म कर देना।

रतन टाटा वाममोर्चा सरकार के इसी रवैये के दम पर धमकी दे रहे हैं कि कोई ये न समझे कि वो 1500 करोड़ रुपए का निवेश बचाने के लिए सिंगूर में पड़े रहेंगे। लेकिन पश्चिम बंगाल के पूर्व वित्त मंत्री अशोक मित्रा के मुताबिक सरकार की तरफ से टाटा की इस परियोजना को लगभग 850 करोड़ रुपए की सब्सिडी दी गई है। बंगाल के लोकल टीवी चैनल ने दिखाया था कि राज्य सरकार ने भूमि के लिए 140 करोड़ रुपए का मुआवज़ा दिया है, जबकि टाटा की तरफ से केवल 20 करोड़ रुपए दिए जाने हैं वो भी पांच साल बाद। टाटा को इस पर कोई स्टैंप ड्यूटी नहीं देनी है और परियोजना के लिए मुफ्त पानी का बोनस ऊपर से।

इतना कुछ पाकर भी टाटा समूह संतुष्ट नहीं है। सिंगूर के बारह हजा़र किसानों को उम्मीद थी कि ज़मीन जाने से उपजी असुरक्षा को दूर करने का वो कोई न कोई पुख्ता उपाय करेगा। ऐसे में ममता बनर्जी अगर अपनी राजनीति चमकाने के लिए कोई आंदोलन कर रही हैं तो क्या आज़ादी के पहले से लेकर अब तक सत्ता और सरकारों के ‘दामाद’ बने रहे टाटा समूह को इस तरह भागना शोभा देता है? ये ठीक है कि टाटा समूह खेलों से लेकर शिक्षा तक में बहुत सारा कल्याणकारी काम करता रहा है। लेकिन क्या 1.5 लाख करोड़ रुपए के सालाना टर्नओवर वाला टाटा समूह सिंगूर के 12,000 हज़ार प्रभावित किसानों के सुरक्षित भविष्य का बीड़ा नहीं उठा सकता? क्या वो इन्हें इनकी ज़मीन के बदले टाटा मोटर्स के इतने शेयर नहीं दे सकता कि इनकी पुश्तों का भविष्य सुरक्षित हो जाए?

शायद आपको याद होगा कि टाटा समूह ने साल भर पहले ही यूरोपीय कंपनी कोरस के अधिग्रहण पर 54,800 करोड़ रुपए (13.7 अरब डॉलर) खर्च किए हैं, जबकि पूरे भारत का साल 2008-09 का शिक्षा बजट 34,400 करोड़ रुपए का है। क्या इतने बड़े साम्राज्य के बावजूद टाटा के इस रवैये को देखते हुए उत्तराखंड से लेकर गुजरात या महाराष्ट्र को उसे अपने यहां नानो परियोजना लाने का न्यौता देना जनहित में है? फिर, क्या किसी भी राज्य को पिछड़ा बनाए रखना हमारे व्यापक देशहित में है?

रवीश, कुछ ज्यादा ही नहीं हो गई तारीफ!!

कल के हिंदुस्तान में संपादकीय पेज़ पर रवीश कुमार ने अपने कॉलम में मेरे ब्लॉग की चर्चा की। लिखा है, “डायरी के कई ऐसे पन्ने खुलते हैं जो पढ़ने के बाद बेचैन करते हैं, आशंकाओं के सामने खड़े कर देते हैं। जीडीपी के बहाने तरक्की की कहानी को वो अपने गांव के गजा-धर पंडित (जीडीपी) की कहानी से उल्टा टांग देते हैं। जीडीपी हमारे खर्च के अनुपात में बढ़ता है। इसे ट्रैफिक जाम में फंसे लोगों की मुसीबत से कोई मतलब नहीं होता। इसे मतलब होता है ट्रैफिक जाम के चलते हमने कितने का डीजल या पेट्रोल जला डाला। कैंसर का कोई मरीज बिना इलाज के मर जाए तो जीडीपी नहीं बढ़ेगा। तब बढ़ेगा जब मरीज महंगा इलाज करवाएगा। एक हिंदुस्तानी की डायरी ऐसे ही सवाल खड़े करती है। जो असहज हैं और जिन पर हंसी आती है क्योंकि लोग ऐसे सवालों पर हंसना सीख गए हैं। वो जानते हैं कि अगर गंभीर हुए तो एक हिंदुस्तानी की तरह वे भी बेचैन हो जाएंगे।”

रवीश कहते हैं कि यह एक गंभीर ब्लॉग है। सोच-समझ कर लिखा जा रहा है। उन मुद्दों के साथ खड़े होने के लिए लिखा जा रहा है जिनके बारे में कोई बात नहीं करता। इस ब्लॉग पर मुझे रेल बजट पर लालू प्रसाद के भाषण का विश्लेषण काफी पसंद आया है। हिंदुस्तानी ने अपने भाषण से अंग्रेजी और हिंदी अंग्रेजी शब्द युग्मों की अच्छी छानबीन की है। लाभांश पूर्व कैश सरप्लस, यात्रा समय को घटाकर थ्रुपुट बढ़ाना, थ्रुपुट संवर्धन, आइरन-ओर मूवमेंट के नए डेडीकेटेट रूट।

लालू के भाषण में यह बेमेल भाषा के लिहाज से नया प्रयोग हो सकता है, इसका अहसास कराते हैं अपने हिंदुस्तानी। लेकिन अगली पंक्ति में लालू की खिंचाई भी करते हैं। कहते हैं कि इसके अलावा लालू जी दस लाख टन को मिलिटन टन ही बोलते रहे। राजनेताओं को लगा कि लालू ने बेवकूफ बनाया है। अनिल रघुराज को लगा कि यह भाषा का नया लुक यानी लालू लुक है। जहां हिन्दी के खांटी शब्द, अंग्रेजी के तकनीकी शब्द ट्रैक बदलते हुए एक दूसरे से टकराते रहते हैं। एक हिन्दुस्तानी की डायरी भी ऐसी ही होनी चाहिए।

अब...क्या कहूं? तारीफ सुनना किसे अच्छा नहीं लगता। मैं भी रवीश के इस लेख को पढ़कर मुदित हो गया। हालांकि फॉन्ट की वजह से पढ़ने में काफी दिक्कत आयी। लेकिन हिंदी के समर्पित सिपाहियों की मेहनत से मुश्किल पलक झपकते ही आसान हो गई। एचटी चाणक्य को फौरन यूनिकोड में बदल डाला। इसी के चलते मैं रवीश के लेख के कुछ अंश यहां पेश कर पाया। अंत में, रवीश का शुक्रिया अदा करते हुए मैं बस इतना कहना चाहूंगा कि चाहे एक लाइन ही सही, ब्लॉग की किसी कमी के बारे में तो लिख दिया होता। मैं तो रहींम की इस बात का कायल हूं कि निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय। चलिए मेरा मेल तो खुला ही है। रवीश, आप जब भी चाहें मेरे लिखे की जमकर खिंचाई कर सकते हैं। आलोचनाएं ज़रूरी हैं ताकि हम और ज्यादा सही और सटीक हो सकें, ताकि हमारे संप्रेषण की शैली और दायरा बढ़ता चला जाए।
फोटो सौजन्य: LightSpectral

Wednesday 3 September, 2008

ताकि हमेशा कायम रहे अपने पर अटूट आस्था

आस्था में बड़ी ताकत होती है और संजय भाई ठीक कहते हैं कि बहुतेरे लोग आस्था की वजह से ही निराशा के दौर से उबरकर आत्महत्या से बच जाते हैं। लेकिन आस्था किस पर? किसी बाह्य सत्ता पर या अपनी संघर्ष क्षमता पर!!! ज्यादातर लोगों में ये दोनों ही आस्थाएं होती हैं। लेकिन कहते हैं कि भगवान भी उसी की मदद करता है जो अपनी मदद करता है। इस नीति वाक्य को आधार बनाएं तो इन दोनों में से अपनी संघर्ष क्षमता या अपने ऊपर आस्था ही प्राथमिक और निर्णायक है। जिसकी अपने पर आस्था खत्म हुई, समझो वह निपट लिया।

इसी आस्था को मजबूत करने की कोशिश की थी मैंने यह लिखकर कि कण-कण में भगवान नहीं, कण-कण में संघर्ष है। यही संघर्ष आकर्षण-विकर्षण का भी सबब बनता है। जुड़ने-बिछुड़ने की अनंत क्रिया चलती रहती है। अनुनाद सही कहते हैं कि, “यदि देखना चाहें तो आपको कण-कण में आकर्षण देखने को मिल सकता है। ...हाइड्रोजन और आक्सीजन के परमाणु आकर्षित होकर एक साथ रहते हैं - इसी से पानी बनता है।” इसी लेख के संदर्भ में मैंने परमहंस सत्यानंद का एक लेख देखा जो विस्फोट पर काफी पहले छपा था और जिसका शीर्षक था – संघर्ष की अनिवार्यता।

इसमें परमहंस सत्यानंद कहते हैं, “जब तक कोई देश या वहां के लोग जीवित रहने के लिए, विकास के लिए संघर्ष करते रहते हैं तब तक वे शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से स्वस्थ रहते हैं। किन्तु ज्यों ही संघर्ष समाप्त होता है, उनको अपनी आवश्यकता की सारी वस्तुएं प्राप्त हो जाती हैं, त्यों ही आत्महत्या की संख्या में वृद्धि होने लगती है। ...स्वीडन एक आदर्श कल्याणकारी देश है। आपको वहां आसानी से काम मिल जाएगा। जो भी चाहो आसानी से मिल जाएगा। फिर भी स्वीडन में आत्महत्याओं की संख्या सर्वाधिक है। आपको संघर्ष की अनिवार्यता को समझना होगा। यह जीवन योजना का हिस्सा है।”

मैंने भी अपने अनुभव से देखा है कि जब तक इंसान में बाहरी स्थितियों से लड़ने की आदिम जिजीविसा और संघर्ष की भावना ज़िंदा रहती है, तब तक वो लड़ता रहता है। बुरा लग सकता है, फिर भी कहता हूं कि जब तक इंसान के भीतर का पशु ज़िंदा रहता है, वह कभी आत्महत्या नहीं करता। सभ्यता के विकास के बाद के बहुत सारे विचारों और बहुत सारी धारणाओं ने बाहरी प्रकृति से लड़ने की बुनियादी इंसानी सोच पर कोहरा डाल दिया है। हमें इस कोहरे को छांटना होगा। विचारों की आग से इसे बूंद-बूंद भस्म करना होगा। इसलिए सिद्धार्थ भाई, मुझे लगता है कि हम संघर्ष के तत्व को ब्रह्म नहीं मान सकते।

मैं तो मानना हूं कि हमें हर उस विचार से जंग लड़नी होगी जो इंसान को कमज़ोर बनाता है। शायद आप में कोई भी इंसान को कमज़ोर होते नहीं देखना चाहता। तो, आप भी हर ऐसे विचार की शिनाख्त कीजिए जो हमें कमज़ोर करते हैं और हम सब मिलकर ऐसे विचारों को एक दिन सूली पर लटका देंगे। मैं तो मानव को सामर्थ्यवान बनाने की इस लड़ाई का एक अदना-सा सिपाही हूं। कोई तख्ती लटकाकर मैं करूंगा क्या? दुष्यंत के शब्दों में कहूं तो...मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

अंत में एक बात और। अपने पर आस्था मतलब आत्ममुग्घता कतई नहीं है। अपने पर मोहित व्यक्ति हमेशा छला जाता है जबकि अपने पर आस्था रखनेवाला व्यक्ति मरते दम तक दम नहीं तोड़ता।

Tuesday 2 September, 2008

क्या बाढ़ राहत में कंपनियों का कोई दायित्व नहीं!

बिहार की प्रलयंकारी बाढ़ राष्ट्रीय आपदा है। ये शर्म की बात है कि हमारा राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन तंत्र बाढ़ की विभीषिका को कम करने में नाकाम रहा है। लेकिन इससे भी ज्यादा शर्म की बात है कि राहत में बंटनेवाली सारी सामग्री के खर्च से इन्हें बनानेवाली कंपनियों को पूरी तरह बरी रखा गया है। खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने व्यवस्था दी है कि कंपनियों को एक्साइज़ या उत्पाद शुल्क समेत राहत सामग्रियों की पूरी कीमत दी जाए। उन्होंने वित्त मंत्रालय से ऐसा पैकेज तैयार करने को कहा है जिससे भोजन सामग्रियों के पैकेट और पुनर्निमाण कामों में इस्तेमाल होनेवाले लोहे, इस्पात और सीमेंट की एक्साइज समेत पूरी कीमत इन्हें सप्लाई करनेवाली कंपनियों को मिले, जिसके बाद एक्साइज का हिस्सा इन्हें खरीदनेवाली एजेंसियों को लौटा दिया जाए।

कहा जा सकता है कि टैक्स तो टैक्स है। कोई सरकार खुद इसे कैसे छोड़ सकती है। आखिर राजा हरिश्चंद्र तक ने अपने इकलौते बेटे के शवदाह की कीमत अपनी पत्नी से वसूल ली थी। लेकिन यहां मामला अलग है। सरकार इस हाथ ले, उस हाथ दे की नीति पर अमल कर रही है। वह एक तरफ कंपनियों को एक्साइज़-समेत पूरी कीमत मिलने की गारंटी कर रही है, दूसरी तरफ वित्त मंत्रालय को हिदायत दे रही है कि इस तरह मिले उत्पाद शुल्क को वह खरीदनेवाली एजेंसियों को वापस लौटा दे।

आप कहेंगे कि इसमें गलत क्या है। तो गलत यह है कि बाढ़ राहत में लगे गैर सरकारी संगठनों, स्वयंसेवी संस्थाओं, निजी व सरकारी उद्यमों या पुनर्वास संगठनों को पहले पूरी कीमत अदा करनी पड़ेगी। फिर उन्हें इस कीमत में शामिल उत्पाद शुल्क का रिफंड पाने के लिए सरकारी दफ्तरों का चक्कर काटना पड़ेगा। और, आप जानते ही हैं कि हमारे बाबुओं और अफसरों को ‘चायपानी’ पाए बगैर सरकारी जेब ढीली करने की आदत नहीं है। इसके बजाय अगर राहत सामग्रियां सप्लाई करनेवाली कंपनियों को कह दिया जाता कि इस राष्ट्रीय आपदा में योगदान करना उनका भी फर्ज बनता है तो राहत का काम नौकरशाही मकड़जाल से बच जाता।

ऐसा नहीं है कि बड़ी कंपनियां या कॉरपोरेट घराने इसमें योगदान नहीं कर रहे। कइयों ने बाढ़ राहत कोष के नाम पर कर्मचारियों से लेकर सप्लायरों से करोड़ों का चंदा इकट्ठा किया होगा। ये सारा पैसा वे राष्ट्रीय आपदा कोष में जमा करेंगे। लेकिन उनकी यह पूरी की पूरी रकम उनकी करयोग्य आय से घटा दी जाएगी। यानी, आम के आम और गुठलियों के भी दाम। क्या बाढ़ में फंसे 30 लाख से ज्यादा देशवासियों के लिए हमारी कंपनियों का कोई फर्ज़ नहीं बनता? क्या वो सिर्फ मुनाफा कमाने के लिए हैं? क्या देश के प्रति उनका कोई दायित्व नहीं बनता? और, हमारी सरकार राष्ट्रीय आपदा के समय भी बड़ी-बड़ी कंपनियों के हितों की रक्षा में क्यों जुटी हुई है?

Monday 1 September, 2008

गोवा के मैडगाव, आप तो वेद-पुराणों के ज्ञाता हैं!!!

Madgao जी, मैं नहीं जानता कि आपका असली नाम क्या हैं, आप कौन हैं और करते क्या हैं। लेकिन इतना पता चला है कि आप एक बुजुर्ग हैं, गोवा में रहते हैं और वेद-पुराणों के ज्ञाता हैं। आप जैसे ज्ञानी अगर अपना ब्लॉग बनाकर भारतीय परंपरा से वाकिफ कराते तो मेरा ही नहीं, सबका भला होता। लेकिन लगता है कि आप अपने एकाकीपन में आत्मरति का शिकार हो गए हैं। तभी तो जहां-तहां बेसिरपैर की टिप्पणी करते फिर रहे हैं। आपको पता नहीं है, फिर भी भारतीय संस्कृति और हमारे समय तक हिंदी माध्यम में शिक्षा देनेवाले मेरे आवासीय स्कूल को आप ‘सम्भवत: मिशनरी’ बता रहे हैं।

अनुनाद, संजय बेंगाणी या सिद्धार्थ की तरह मेरी सोच में छूट गए पक्षों को उभारने के बजाय आप मेरा निजी छिद्रान्वेषण कर रहे हैं वो भी नितांत मनगढंत तरीके से। माखनलाल चतुर्वेदी के ज़रिए ‘श्वान के सिर हो चरण तो चाटता है, भौंक ले क्या सिंह को’ जैसे अपशब्द कह रहे हैं। आप जैसे ज्ञानी को यह छिछलापन शोभा नहीं देता। खैर, अभी तो मैं आपकी टिप्पणी नहीं हटा रहा हूं। अनुरोध है कि आप इसे खुद हटा लें। नहीं तो कल मैं इसे हटा दूंगा।

आपका परिचय जानने के बाद आपकी टिप्पणी ने ज्यादा ही आहत किया है। हो सकता हो कि आपने जो कुछ कहा है, सब अक्षरश: सच हो। मैं इतना दंभी नहीं हूं कि अपनी पीठ देखने का दावा कर सकूं। हां, बचपन में मेरी अइया मुझे भोला कहकर बुलाती थीं। उनका साया उठे 25 साल से ज्यादा हो गए हैं। आपकी टिप्पणी ने मुझे अपनी अइया की याद दिला दी और उसी भोले शंकर की शरण में पहुंचा दिया जिसके स्वभाव की झलक वो मुझमें देखती थीं। हो सकता है कि मैं उस चोर की तरह हूं जो शिवलिंग पर चढ़कर मंदिर में टंगा सोने का घंटा उतार रहा था। लेकिन भोले शिव ने उसे भी वरदान दे डाला था। तो हे मैडगाव महोदय, भगवान शिव आप पर भी ऐसी कृपा करें। देखिए और सुनिए शिव की यह वंदना...