Monday 23 June, 2008

पीआर में माहिर हमारे संपादक एचआर नहीं जानते

चौदह नौकरियों और तेरह इस्तीफों के बाद मुझे अब तक अलविदा मेल लिखने की कला में माहिर हो जाना चाहिए था। लेकिन इस मामले में मैं अब भी वैसा ही कच्चा हूं जैसा 23 साल पहले अपना पहला विदाई संदेश लिखते वक्त था। सोचता हूं कि बार-बार मुझे अपनी नौकरी को अलविदा क्यों करना पड़ता है। हालांकि पिछले साल भर से टीवी न्यूज़ का जो हाल हुआ है, उसे देखते हुए मुझे बाहर जाना इस बार उतना बुरा नहीं लग रहा।

हाल ही में अपने एक वरिष्ठ सहयोगी का ये अलविदा-मेल पढ़कर मुझे पत्रकारिता में अपने शुरुआती दिनों की याद आ गई जब दो सालों के दरम्यान मैंने नौ नौकरियां बदली थीं। लेकिन तब वजह यह थी कि मैंने काफी देर से शुरुआत की थी और मुझे जल्दी से जल्दी सम्मानजनक जगह हासिल करनी थी। आज जिस तरह से मीडिया में पत्रकार फटाफट नौकरियां बदल रहे हैं या एक जगह टिके भी हैं तो भीतर ही भीतर कुढ़ रहे हैं, उसकी वजह सिर्फ ज्यादा से ज्यादा पैसे कमाना और बेहतर पोजीशन हासिल करना ही नहीं है। खासकर हिंदी पत्रकारिता में जो लोग आते हैं, उनके लिए इस तरह का सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता।

यह सच है कि पत्रकारिता अब मिशन नहीं, एक पेशा बन गई है और न्यूज़ एक कमोडिटी। मीडिया संस्थान सर्विस सेक्टर का हिस्सा हैं। किसी भी कंपनी की तरह ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना उनका मकसद है। सर्कुलेशन और टीआरपी की अंधी दौड़ ने इसे साबित कर दिया है। ऐसे में होना तो यह चाहिए था कि कॉरपोरेट किस्म की लोकतांत्रिक नेतृत्व शैली और टीमवर्क की भावना न्यूज़रूम में भी आ जाती। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

अंग्रेज़ी अखबारों और चैनलों का मुझे अनुभव नहीं है, लेकिन हिंदी अखबारों और चैनलों के बारे में डेढ़ दशकों के अनुभव के आधार पर मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि यहां संपादक की कुर्सी पर बैठते ही अच्छे खासे-पत्रकार भी सामंत बन जाते हैं और उनकी दमित इच्छाएं उबाल मारने लगती हैं। उनकी कोशिश बस इतनी रहती है कि मंत्री, अफसर और मालिकान खुश रहें, जबकि नीचेवाले मातहत डरे रहें। जब भी मौका मिलता है, वो नीचेवालों को धमकाने से नहीं चूकते कि दो मिनट में मैं तुम्हारी नौकरी ले सकता हूं।

उद्योग में कोटा-परमिट राज के खत्म होने से राजनीतिक पहुंच की अहमियत काफी हद तक घट गई है। लेकिन शायद यह कोई छिपा हुआ सच नहीं है कि अखबारों और चैनलों में शीर्ष संपादकों की नियुक्ति में अब भी राजनीतिक संस्तुतियों की बड़ी अहमियत है। इसीलिए संपादकगण भी नेताओं और मंत्रियों को साधने में लगे रहते हैं। अखबार में असिस्टेंट या न्यूज़ एडिटर तक आप अपनी मेहनत और काबिलियत से पहुंच सकते हैं। चैनलों में इग्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर (ईपी) बनने के लिए भौकाल और ऊपर वालों की नज़रों में ‘काम’ का होना ज़रूरी है। लेकिन प्रिंट या टीवी में अगर संपादक बनना है तो कोई तगड़ा पौआ होना ज़रूरी है। वैसे, धीरे-धीरे ये हकीकत बदल रही है। लाइसेंस कोटा राज के अवशेष अब पत्रकारिता से भी हटने लगे हैं।

मगर दिक्कत यही है कि रस्सी जल जाने के बाद भी ऐंठन बची हुई है। हमारे संपादकगण समझने को तैयार नहीं हैं कि आज न्यूज रूम को कॉरपोरेट अंदाज़ में चलाना पड़ेगा। संपादकीय विभाग में भी किसी सीनियर को मानव संसाधन (एचआर) के संरक्षण और विकास की भूमिका निभानी होगा। जिस तरह सर्विस सेक्टर में कर्मचारी को ऐसेट मानकर उसके सर्वोत्तम पहलुओं के इस्तेमाल की कोशिश की जाती है, उसी तरह अखबार या न्यूज़ चैनलों में हर पत्रकार को उसकी अंतर्निहित क्षमताओं के आधार पर आंकना होगा। चाटुकारिता या भाई-भतीजावाद न्यूज़रूम में नहीं चल सकता और न ही किसी तरह के प्रोफेशनलिज्म का स्वांग।

आज के कॉरपोरेट जगत में लोकतंत्र का होना एक बुनियादी शर्त है। और, मीडिया इसका अपवाद नहीं है। आज पत्रकारिता और मीडिया के बारे में कब्र में दफ्न किसी मिशन या खाक बन चुके किसी एसपी के संदर्भ में नहीं, बल्कि संपूर्ण कॉरपोरेट संरचना के संदर्भ में बात की जानी चाहिए। हां, इतना ज़रूर है कि मीडिया लोगों का दिमाग बनाता है और विंस्टन चर्चिल के शब्दों में, “The empires of the future will be the empires of the minds.”
फोटो साभार: ms_mod

Friday 13 June, 2008

फुटपाथ तो बना नहीं पाते, शहर क्या बनाएंगे?

क्या खेती-किसानी का घाटे का सौदा बन जाना एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है? क्या छोटी जोतों का किसी एसईजेड में समा जाना या किसी बड़े कॉरपोरेट घराने की जागीर बन जाना स्वाभाविक प्रक्रिया है? क्या खेतों से किसानों का उजड़ जाना ऐतिहासिक नियति है? हमारे वित्त मंत्री पी. चिदंबरम शायद ऐसा ही मानते हैं। 31 मई 2008 के तहलका में छपे एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा है, “My vision of a poverty-free India will be an India where a vast majority, something like 85 percent, will eventually live in cities.” चिदंबरम ने इसके अगले ही वाक्य में साफ किया कि वो महानगरों की नहीं, शहरों की बात कर रहे हैं। उनका कहना है कि 6 लाख गांवों की बनिस्बत शहरी माहौल में लोगों को पानी, बिजली, शिक्षा, सड़के, मनोरंजन और सुरक्षा मुहैया कराना ज्यादा आसान होता है।

चिदंबरम साहब, अभी तो आप मौजूदा शहरों की ही व्यवस्था दुरुस्त कर लीजिए, फिर 85 फीसदी अवाम को शहरों में पहुंचाने की बात कीजिएगा। सड़क, पानी और बिजली जैसी जिन सुविधाओं की बात आपने की है, उनकी हकीकत जानने के लिए आप बिना किसी लाव-लश्कर के दिल्ली से सटे गाज़ियाबाद या मुंबई के उपनगरों की यात्रा कर लीजिए। उसके बाद आगरा जाइए, मेरठ जाइए, कानपुर जाइए, बनारस जाइए, बरेली जाइए, इलाहाबाद जाइए। पटना हो आइए। देश के किसी भी शहर का जायज़ा ले लीजिए। बजबजाती नालियां, बदबू के भभके से घिरे कचरों के ढेर, आवरा कुत्ते और सूअर, सड़कों के गढ्ढे या गढ्ढ़ों की सड़क, हाथी से भी धीमी गति से चलता ट्रैफिक। कहीं न जा पाएं तो दिल्ली के सीलमपुर, शाहदरा, नारायणा या सीमापुरी का ही दौरा कर लीजिए। सारा सूरतेहाल सामने आ जाएगा। फिर बताइए, आप किसको शहरों का सब्ज़बाग दिखा रहे हैं।

शहरों में फुटपाथ तो हैं, लेकिन बस कहने भर को, पैदल चलनेवालों के लिए नहीं। फुटपाथ दुकानों के भीतर समा गए हैं। जहां कहीं बचे हैं तो हमेशा खुदे रहते हैं। दिल्ली के कनॉट प्लेस जैसे कुछ इलाकों को छोड़ दें तो बाकी जगहों पर हर साल फुटपाथ तोड़े जाते हैं, बनाए जाते हैं। हर साल लाखों इन पर खर्च किए जाते हैं। फिर भी ये इस्तेमाल करने लायक नहीं रहते। मुंबई में भी फोर्ट या मरीन ड्राइव के अलावा बाकी शहर की यही हालत है। मजे की बात है कि वही इंजीनियर कनॉट प्लेस, फोर्ट या मरीन ड्राइव में जानदार फुटपाथ बना लेते हैं, जबकि बाकी इलाकों में वो हर साल टूटनेवाला फुटपाथ ही बनाते हैं। इसका कारण किसी से छिपा नहीं है। सवाल उठता है जो सरकार काम के फुटपाथ नहीं बना सकती, वह शहरी तंत्र कैसे खड़ा सकती है?

अब पानी की बात लेते हैं। दिल्ली के वसंत विहार इलाके में हज़ारों सरकारी कर्मचारियों के आवासीय परिसर हैं। लेकिन यहां पानी दिन में चंद घंटे ही आता है। अपनी टंकियां लगाना या बड़े-बड़े पीपे रखना लोगों की मजबूरी है। जब सरकारी कर्मचारियों के परिसर का ये हाल है तो बाकी इलाकों की हालत का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। सवाल उठता है जिस शहर में झमाझम बारिस होती हो, जहां पुरानी बावड़ियों का जाल फैला हुआ है, वहां क्या रेन हार्वेस्टिंग के जरिए पानी बचाकर लोगों को बारहों महीने चौबीसों घंटे पानी नहीं सप्लाई किया जा सकता? आखिर दूरदराज की नदियों से पानी खींचकर लाने की ज़रूरत ही क्या है? देश का कोई भी शहर ऐसा नहीं है जहां ज़रूरत भर का पानी न बरसता हो, लेकिन पानी की मारामारी हर जगह मची रहती है।

शहरों में मल्टीस्टोरी बिल्डिंगें बनाने का फैशन चला हुआ है। इन बिल्डिंगों में लोग नाम से नहीं, फ्लैट के नंबर से जाने जाते हैं। 67-बी नंबर वाले तो 107-एफ वाले तो ई-513 वाले। गांव की किसी पगडंडी से आप बिना परिचित से टकराए नहीं गुजर सकते। लेकिन नगरों-महानगरों की भीड़ में परिचित चेहरा ढूंढने से भी नहीं मिलता। पड़ोसी हैं, लेकिन परिचित नहीं। अपराधी परिचित पड़ोसियों के गुम हो जाने की इसी ‘सहूलियत’ का फायदा उठाते हैं। यही वजह है कि ऊंची-ऊंची बिल्डिंगों में गार्ड के रहते हुए भी आएदिन हत्या की वारदातें होती रहती हैं। चिदंबरम जी, आप शहरों में किस सुरक्षा की बात कर रहे हैं?

जहां तीन-चार मंजिल तक के आवासीय परिसर हैं, वहां गार्ड के न होने के बावजूद अपराधी घुसने से डरते हैं। लेकिन बिल्डर लॉबी तो इन्हें गिराकर बहुमंजिलें इमारतें बनाना चाहती है। उसे लोगों की सुरक्षा और सहूलियत की परवाह नहीं है और सरकार सुव्यवस्थित शहरीकरण में नहीं, इस बिल्डरों को खुश करने की कवायत में लगी हुई है। आज़ादी के बाद के साठ सालों में पुराने शहरों की व्यवस्था बरबाद हो गई है। गांवों से शहरों की तरफ आबादी का पलायन जारी है। और, सी-लिंक से फ्लाईओवरों के बनने के बावजूद शहरों का बुनियादी तंत्र चरमरा रहा है। ऐसे में 85 फीसदी आबादी को शहरों में लाने की बात वित्त मंत्री का कोई विजन नहीं, बल्कि अंधापन है, एक क्रूर मज़ाक है।
आधार: बिजनेस लाइन में छपा एक लेख

Wednesday 11 June, 2008

गुमराह करो, सुनो मत और बोलें तो गोली मार दो

विकास के नाम पर कैसा छल चल रहा है!! कौन नहीं चाहता कि उसके इलाके में विकास हो, चमचमाती सड़कें बनें, फैक्टरियां लगें। बहुत से इलाकों के बहुत-बहुत से लोग रोना रोते रहते हैं कि उनके एमएलए, एमपी ने इलाके के लिए कुछ नहीं किया। काश, कोई मंत्री, मुख्यमंत्री या वीआईपी उनके इलाके का प्रतिनिधि होता तो इलाके की सूरत बदल गई होती। किसान खुशी-खुशी अपनी ज़मीनें विकास के लिए दे देते। विकास की कचोट को भुनाने के लिए आज हर राजनीति दल, हर नेता विकास की बात करता है। मैं भी विकास का समर्थक हूं। यकीनन आप भी होंगे। लेकिन ऊपर से लटकाया गया विकास कैसे गंवई इलाके के लोगों के गले में फांसी का फंदा बन जाता है, इसका सबूत दिया है विस्फोट पर प्रकाशित एक रिपोर्ट ने।

सोचिए, राजस्थान के उस बाडमेर इलाके में सरकार ने जिंदल स्टील वर्क्स के सज्जन जिंदल को कोयले और लिग्नाइट से बिजली बनाने की इजाज़त दे दी है, जहां साल भर आंधियां चलती हैं। किसानों की समझ कहती है कि इन आंधियों से पवन बिजली बनाई जा सकती है, जिससे पर्यावरण भी बचा रहेगा और उनका और उनके पशुओं का भरण-पोषण करनेवाली ज़मीन भी बच जाएगी। जबकि सज्जन जिंदल की ताप विद्युत परियोजना से इलाके में भयंकर प्रदूषण फैलेगा। आपको बता दूं कि ये वही सज्जन जिंदल हैं जिनके पिता ओ पी जिंदल राज्यसभा के सांसद थे और जिनका भाई नवीन जिंदल इस समय कांग्रेस का लोकसभा सांसद है।

रेगिस्तानी इलाके में बिजली परियोजना लगेगी तो सबका भला होगा। लेकिन सरकार अगर सज्जन जिंदल के बजाय इस परियोजना के लिए इलाके के किसानों की राय ले लेती तो उसका क्या घट जाता। बल्कि इससे देश को बिजली भी मिल जाती और किसान भी अपनी रोज़ी-रोटी चलाते हुए चहकने लगते। लेकिन विकास की डुगडुगी बजानेवाली केंद्र और राज्य सरकारों को एकतरफा विकास चाहिए। उन्होंने अपनी आंखों पर पट्टी बांध रखी है। उन्हें अपनों का हित देखना है। अपनों की सुननी है। गैरों की नहीं। कितने अफसोस की बात है कि इस देश के 60-70 करोड़ गंवई बाशिंदे हमारी सरकारों के लिए गैर हो गए हैं।

ये अगर गैर नहीं होते तो खाद की पर्याप्त आपूर्ति की मांग करनेवाले किसानों पर कर्नाटक में गोलियां नहीं चलाई जातीं। मुझे तो यह जानकर भी आश्चर्य हुआ कि केंद्र सरकार राज्यों के लिए आज भी खाद का कोटा तय करती है। अगर देश की आधी से ज्यादा आबादी गैर नहीं होती तो विकास की दौड़ में बराबरी का हक मांगनेवाले गूर्जरों की इस तरह जान नहीं ली जाती। सीधे बात न करके आर्ट ऑफ लिविंग के दलाल गुरु को मध्यस्थ नहीं बनाया जाता।

सीधी-सी बात है कि सरकार की नीति यही है कि हम-आप जैसे पढ़ने-लिखनेवाले शहरी लोगों तक आधी-अधूरी सूचनाएं पहुंचाई जाएं ताकि हम विकास के सुनहरे ख्वाबों में खोए रहें, भ्रमित रहें, गुमराह रहें। जो लोग जायज हक की बात करते हैं या तो उनकी बात देश के सामने नहीं आने दी जाती या आंदोलनों के जरिए उठी उनकी आवाज़ को गोलियां से चुप करा दिया जाता है। विकास से किसी का इनकार नहीं, किसी को ऐतराज नहीं। लेकिन जिस विकास में लोगों की भागीदारी न हो, उससे देशी-विदेशी कंपनियों का भला हो सकता है, देश का नहीं। विस्फोट ने अपनी रिपोर्ट के जरिए ऐसा सच उजागर किया है, जिस पर हम सभी को सोचने की ज़रूरत है। आखिर में मेरी यही कामना है कि झूठ या आधा सच पेश करते मीडिया के समानांतर विस्फोट जैसे मंच वैकल्पिक मीडिया बनकर उभरें, जो आधा-अधूरा सच नहीं, पूरा सच हमारे सामने रखें।

Tuesday 10 June, 2008

हत्या बिजनेस का तार्किक विस्तार है

चार्ली चैपलिन की एक फिल्म है Monsieur Verdoux (A Comedy of Murders) जो उन्होंने दूसरे विश्व युद्ध के खत्म होने पर 1947 में बनाई थी। फिल्म में एक ईमानदार क्लर्क की कहानी है जो 1929 की महामंदी के असर के बाद सीरियल किलर बन जाता है। उसे अपने परिवार की देखभाल की फिक्र है, लेकिन पैसे कमाने के लिए वो अमीर विधवाओं से शादी करता है और फिर मौका पाते ही उनकी हत्या कर देता है। फिल्म के अंत में उसे मौत की सज़ा सुनाई जाती है तो वह अपने गुनाह को पश्चिमी सभ्यता के गुनाहों के आगे बेहद मामूली बताता है। उसका डायलॉग है - As a mass killer, I’m an amateur by comparison... इस चरित्र के बारे में चैपलिन का कहना था कि जिस तरह युद्ध कूटनीति का तार्किक विस्तार है, उसी तरह फिल्म का नायक मानता है कि हत्या बिजनेस का तार्किक विस्तार है। इस फिल्म को लेकर चैपलिन की खूब खिंचाई हुई थी। अब भी हो रही है। ताज़ा स्थिति आप न्यूयॉर्क टाइम्स की इस रिपोर्ट से जान सकते हैं।

फिलहाल इस पोस्ट के ज़रिए मैं पहली बार अपने ब्लॉग पर वीडियो लगाने का अभ्यास कर रहा हूं। YouTube से लिया गया इस फिल्म का ट्रेलर पेश है। देखिए और पूरी फिल्म को समझने की कोशिश कीजिए।

Monday 9 June, 2008

गाय और सूअर खाने से उपजा है खाद्यान्न संकट

दुनिया खाद्य संकट की गिरफ्त में है। अमर्त्य सेन इसकी वजहें गिना चुके हैं। जॉर्ज बुश इसके लिए भारत और चीन की बढ़ती समृद्धि को दोषी ठहरा चुके हैं। लेकिन उन्होंने ये नहीं बताया कि अमेरिका में पैदा होनेवाला 70 फीसदी अनाज गायों और सूअरों को खिला दिया जाता है ताकि अमेरिकी उनका मांस खा सकें। भारत के प्रमुख औद्योगिक समूह काइनेटिक के चेयरमैन अरुण फिरोदिया ने आज इकोनॉमिक्स टाइम्स में छपे अपने लेख में कुछ ऐसे ही तथ्य पेश किए हैं। लेख के चुनिंदा अंश...

दुनिया भर में छाए खाद्यान्न संकट का गुनहगार कौन है? उंगलियां पेट्रोल की जगह इथेनॉल के इस्तेमाल पर उठाई जा रही हैं। कहा जा रहा है कि अमेरिका के किसान मक्के का इस्तेमाल इथेनॉल बनाने में कर रहे हैं जिसके चलते दुनिया भर में खाद्यान्नों की कीमतें बढ़ गई हैं। गंभीर बहस हो रही है कि क्या कृषि भूमि का उपयोग इथेनॉल के उत्पादन के लिए किया जाना चाहिए। ज़ोर देकर कहा जा रहा है कि कृषि भूमि खाद्यान्नों के उत्पादन में काम आनी चाहिए, न कि इथेनॉल के लिए।

अच्छी बात है। लेकिन खाद्यान्न जा किसके पेट में रहे हैं? आपको ये जानकर आश्चर्य होगा कि अमेरिका में पैदा होनेवाला 70 फीसदी अनाज गायों और सूअरों को खिला दिया जाता है ताकि इंसान उनका मांस खा सके। दुर्भाग्य से जानवर अनाज के मांस में सबसे बुरे ‘कनवर्टर’ हैं। एक गाय 16 किलो अनाज खा जाती है तब उसका एक किलो मांस बनता है और इस एक किलो मांस के लिए 10,000 लीटर पानी अलग से खपता है। अनाज का सबसे सक्षम इस्तेमाल तब होता है जब इंसान सीधे उन्हें खाता है। अगर लोग जो अनाज जानवरों को खिलाकर फिर उनका मांस खाते हैं, उसे खुद खाने लगें तो पूरी दुनिया को पेट भर अनाज मिल जाएगा और ‘खाद्य संकट’ कहीं नहीं रहेगा।

एक औसत अमेरिकी साल भर में 125 किलो मांस खा जाता है और सभी अमेरिकी मिलकर साल भर में 3.50 करोड़ टन मांस उदरस्त करते हैं। चीन में तो स्थिति और भी भयंकर है। हालांकि औसत चीनी सब्जियां भी काफी मात्रा में खाता है, लेकिन इसके साथ-साथ वह साल भर 70 किलो मांस भी खाता है। इसमें ज्यादातर सूअर का मांस होता है, लेकिन गाय के मांस की मात्रा भी कम नहीं है। सभी चीनी कुल मिलाकर साल भर में 10 करोड़ टन मांस खा जाते हैं। पिछले 50 सालों में दुनिया में मांस की उपलब्धता पांच गुना बढ़ी है। नतीज़तन ज्यादा से ज्यादा अनाज इंसानों के बजाय जानवरों के पेट में जा रहे हैं। यहां तक कि थाईलैंड जैसे देशों तक में जानवरों को खिलाए जानेवाले अनाज का अनुपात एक फीसदी से बढ़कर 30 फीसदी हो गया है। अब चूंकि अनाज की मांग सप्लाई से ज्यादा रफ्तार से बढ़ रही है, इसलिए अनाजों की कीमत भी चढ़ती जा रही है।

चीन और अमेरिका में लोग अनाज कम और मांस ज्यादा खाते हैं। इसलिए जब तक मांस सस्ता है, उन्हें अनाज के महंगे होने से खास फर्क नहीं पड़ता। चीन में तो सूअर का आरक्षित ‘स्टॉक’ रखा जाता है और बढ़ती कीमतों पर अंकुश रखने के लिए यह स्टॉक बाज़ार में छोड़ा जाता है। सवाल उठता है कि वे जानवरों को अनाज खिलाते ही क्यों हैं? जानवरों को खुले मैदानों में चरने के लिए क्यों नहीं छोड़ दिया जाता? उन्होंने घास और चारा क्यों नहीं खिलाया जाता? आपको बता दें कि मांस के लिए पाले गए पशुओं की संख्या इस समय लगभग 50 अरब है यानी कुल मानव आबादी के आठ गुने से ज्यादा। इतने जानवरों के लिए दुनिया में पर्याप्त चरागाह नहीं है तो मांस उत्पादक उन्हें अपने मुनाफे के लिए अनाज खिलाते जा रहे हैं।

भारत में अभी मांस की प्रति व्यक्ति सालाना खपत महज तीन किलो है। भारतीय गाय घास और चारा खाती है, जबकि सूअर कचरा। लेकिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने यहां बड़े पैमाने पर मांस उत्पादन का धंधा शुरू कर दिया तो वे गायों और सूअरों को अनाज खिलाने लगेंगी। कल्पना कीजिए, अगर अमेरिका की तरह हमारा भी 70 फीसदी खाद्यान्न जानवरों को खिलाने में इस्तेमाल किया जाने लगा तो क्या होगा?
फोटो सौजन्य: db